एहू बेरी छठ पर नहीं आए….

छठ के गीत वैसे ही बेचैन करते हैं, जैसे गाय के हंकरने पर बछरू बेचैन हो जाता है।बिहार के लोगों से गांव,घर,खेत,कस्बा, होमटाउन सब छूट जाता है।लेकिन नहीं छुटता है छठ ,जिसने पूरी दुनिया में बसे बिहारियों को अपनी मिट्टी से जोड़े रखा है।
“माई का फोन आया था। कह रही थीं कि बाबू एहू बेरी छठ पर नहीं आए। तुम्हरे बिन छठ पर कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। अइसा नौकरी काहे करते हो, जहां छठ पर छुट्टी न मिले। कहती हैं कि नौकरियो त छठिए माई के दिहल है।”जिनका बचपन किशोरावस्था गांव में बीता है और शहर में नौकरी की जंजीरों ने छठ जैसी परंपरागत पर्व से दूर कर दिया है ऊहे आदमी इस दुख को बुझता माने समझता है। पैसा कमाने बेहतर जिंदगी तलाश में शहर में आया आदमी कब अपनी जड़ों से दूर हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता मां बाप भाई बहन रिश्ते नाते सब पीछे छूट जाते हैं भूल जाता है कि उसे अपने घर भी वापस लौटना है। शहर की मोह माया उसे बांध लेती है वह भूल जाता है उन सपनों को जिन्हें अपने कंधों पर लेकर बहुत शहर आया था इस वादे के साथ कि वापस लौटेगा फिर रहेगा अपने गांव में ही#अनूप

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