जमुई के आदिवासी बहुल पहाड़ी टोला के साथ कब होगा न्याय !

राजीव कुमार
वर्षों पूर्व जमुई अर्न्तगत खैरा के आदिवासी बाहुल्य पहाडीटोला के लोगों को अंचल कार्यालय द्वारा जमीन का पटटा दिया गया था, लेकिन अब वन विभाग को दिए गए भूमि के स्वामित्व से आपत्ति है। निकटवर्ती बेलाटांड में भी वन भूमि पर बसे वनवासियों के साथ विभाग की सहमति नहीं बन रही है, जबकि पिछले पांच दशकों से ये वहीं पर रह रहे हैं । कमोबेश यही कहानी खैरा प्रखंड के सूदूरवर्ती जत्थर गांव की भी है। 1972 से बसे इस गांव के लोगों को भूमि के कागजात होने के बावजूद भूमि पर कब्जा नहीं हो पा रहा है। पीढियां गुजर गई, बच्चे बड़े हो गए । इस गांव के आदिवासियों का कुल 6 एकड भूमि पर कब्जा था। अंचलाधिकारी ने 1992 में भूमि का पटटा भी निर्गत किया था। उधर नीमटोला के खैरबारों के साथ वन विभाग की ठन गई है। जिससे इनकी जिन्दगी ही कोर्ट -कचहरी के चक्कर लगाते हुए गुजर रही है।
खैरा के मुख्यतः दीपाकरहर, रजला, सिरसिया, मैंग्रो, बरदौन, खैरबा, आराडी, ताराटांड, मंजूरीटांड, बाराटांड, कालाडी, केरबातरी, एकतरबा, आदि गावं की कहानी भी कमोबेश समान है।
इन गांवों के अलावे जिले में ऐसे प्रखंडों के भी नाम गिनाए जा सकते हैं। जहां वन भूमि है और वन विभाग और राजस्व विभाग के बीच जमीन को लेकर समस्याएं है। इनमें जमुई के खैरा, चकाई, झाझा, सोनो, बरहट में आदिवासियों की संख्या अधिक है । दूसरी ओर वन विभाग और भू- राजस्व विभाग की पेचिदगियों में पूरा मामला उलझकर रह गया है।
ऐसा पाया गया कि ये सभी आदिवासी जातियां मुख्यतः खैरा प्रखंड के विभिन्न गावं में झारखंड से रोजी- रोटी की तलाश में वन्य इलाकों में आकर बस गए। हालांकि जमुई के साथ ही कुल तेरह जिलों में आदिवासियों की आबादी एवं वन भूमि भी है। यह अध्ययन का विषय है कि इन जिलों में वन भूमि के क्रियान्वयन की क्या स्थिति है ? लेकिन यह सत्य है कि इन इलाकों में खासकर आदिवासी जातियां 2005 के पूर्व से ही रह रही है। नियमानुसार यह कानून आदिवासियों को 2005 से पूर्व बसने पर भूमि पर स्वामित्व का अधिकार देता है । इस संबंध में सरकार को बिहार के आदिवासियों की पहचान के साथ ही वन भूमि को लेकर अध्ययन कराना चाहिए, ताकि वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की दिशा में ठोस कदम उठाया जा सके।
साथ ही ग्राम पंचायतों को अधिकार दिए जाने की जरूरत है, ताकि वन अधिकार समितियां वन भूमि पर स्वामित्व को लेकर प्रभावकारी भूमिका निभा सके।
लंबे संघर्ष के बाद वन अधिकार काननू 2006 में पारित हुआ और 2008 में अस्तित्व में आया, ताकि वनों के संरक्षण के साथ- साथ वन क्षेत्र के निवासियों की आजीविका तथा खाद- सुरक्षा सुनिश्चित हो। उनके अधिकारों की रक्षा हो, लेकिन बीते वर्षों में बिहार में इस कानून का अपेक्षित लाभ अभिवंचित समुदायों को नहीं मिल पाया। कानून का आना एक ऐतिहासिक घटना थी। सरकार इस कानून के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है और न्याय के साथ विकास के सपने को साकार कर सकती है। अभिवंचित समुदायों को मुख्य धारा में जोड़ने का काम कर सकती है, लेकिन कानून के क्रियान्वयन को लेकर थोडी निराशा है ।
पिछले दिनों हजारों आवेदनों (दावापत्रों) को वन विभाग ने बगैर जांच के ही सिरे से खारिज कर दिया था। तत्पश्चात एक लोकहित याचिका की सुनवाई के दौरान पटना उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में न सिर्फ खारिज आवेदनों को पुनः पुर्नविचार का आदेश दिया, बल्कि आदेश में वन भूमि पर बसे लोगों को बेदखल नहीं करने के भी निर्देश दिए । बावजूद दावापत्रों की जांच एवं सुनवाई में अपेक्षित तेजी नहीं आ पाई है। वन विभाग एवं भू राजस्व विभाग के तालमेल से इस दिशा में बेहतर नतीजे निकल सकते हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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