गणादेश खासः बिहार की सियासत में दोस्ती और दुश्मनी का खेल है जारी , निपटते जा रहे छोटे दल

रवि भारती
गणादेश डेस्कः बिहार की सियासत को पढ़ना बहुत ही मुश्किल है। सियासत में दोस्ती और दुश्मनी का खेल जारी है और एक-एक छोटे दल निपटते जा रहे हैं.कौन कब गुलाटी मार दे अनुमान लगाना भी मुश्किल । यह बात सही है कि सियासत में कोई किसी का दोस्त नहीं होता। समीकरण के बदलते ही दोस्त, दुश्मन बन जाते हैं और दुश्मन दोस्त.। कल तक जिन नेताओं के बीच दोस्ती की कसमें चर्चा में रहती थीं आज फूटी आंखों एक-दूसरे को नहीं सुहा रहे.। बात करें मुकेश सहनी की तो उन्हें बीजेपी ने बड़ा सियासी झटका दिया. 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरजेडी के साथ गठबंधन तोड़कर बीजेपी से हाथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी से चार विधायक जीते थे. इनमें से एक विधायक का निधन हो चुका है और बाकि तीनों विधायक राजू सिंह, मिश्रीलाल यादव और स्वर्णा सिंह ने सहनी का साथ छोड़ दिया ।
जहां किया सियासी सफर शुरू, फिर वहीं पहुंच गए
मुकेश सहनी ने जहां से सियासी सफर शुरू किया था, फिर वे वहीं पहुंच गए। सहनी के तीनों ही विधायकों ने बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष डा. संजय जायसवाल, उपमुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद के साथ बिहार विधानसभा अध्यक्ष विजय सिन्हा से मुलाकात कर बीजेपी का दामन थाम लिया । स्पीकर ने उन्हें बीजेपी में विलय की मान्यता भी दे दी। ऐसे अब मुकेश सहनी के लिए सियासी संकट खड़ा हो गया कि कैसे अपने मंत्री पद और एमएलसी की कुर्सी बचाएं.
कुशवाहा भी बीजेपी से दूर हो कर हो गए मजबूर
उपेंद्र कुशवाहा भी बीजेपी से दूर होकर मजबूर हो गए। 2017 में सियासी समीकरण ऐसे बदले कि नीतीश कुमार ने आरजेडी से गठबंधन तोड़कर बीजेपी के साथ फिर से हाथ मिला लिया. नीतीश की एनडीए में वापसी होते ही उपेंद्र कुशवाहा के रिश्ते बीजेपी से बिगड़ने लगे और 2019 चुनाव से पहले सियासी राह जुदा हो गई. कुशवाहा ने केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देकर बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया और आरजेडी के साथ हाथ मिला लिया. कुशवाहा के बाकी दोनों सांसद बीजेपी में शामिल हो गए तो तीनों विधायक जेडीयू का दामन थाम लिए. लोकसभा चुनाव 2019 में आरजेडी की अगुवाई वाले महागठबंधन में कुशवाहा की पार्टी ने पांच संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ा लड़ी, लेकिन एक भी सीट पर जीत नहीं सकी. इसके बाद 2020 के चुनाव में कुशवाहा का रिश्ता आरजेडी से बिगड़ गया और ओवैसी के मिलकर चुनाव लड़े, लेकिन खाता नहीं खोल सके. विधानसभा चुनाव के बाद खाली हाथ कुशवाहा ने जेडीयू में अपनी पार्टी का विलय करते हुए घर वापसी कर गए और फिर से नीतीश कुमार ने उन्हें एमएलसी बनाकर साथ रख लिया है.
चिराग पासवान के पास न पार्टी बची न नेता
पीएम मोदी के ‘हनुमान’ बताने वाले चिराग पासवान ने एनडीए से नाता तोड़ने के बाद कहीं के नहीं बचे हैं. न तो चिराग के पास पार्टी बची और न ही नेता. एलजेपी की कमान चिराग पासवान के संभालते ही पार्टी की उलटी गिनती शुरू हो गई. सीट शेयरिंग को लेकर सहमति नहीं बनी तो चिराग पासवान ने बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ी. चिराग ने जेडीयू के उम्मीदवारों के खिलाफ एलजेपी के प्रत्याशी उतारा और बीजेपी को वाकओवर दिया. इस तरह चिराग पासवान को अकेले चुनाव लड़ना मंहगा पड़ा और महज एक सीट ही जीत सके, जो बाद में जेडीयू का दामन थाम लिया तो एमएलसी बीजेपी में शामिल हो गई. चिराग पासवान को छोड़कर पार्टी के बाकी सभी पांचों सांसद उनके चाचा पशुपति पारस साथ मिलकर तख्तापलट कर दिया. पशुपति पारस मोदी सरकार में एलजेपी कोटे से केंद्रीय मंत्री बन गए. एलजेपी संसदीय दल के नेताओं के तौर पर पशुपित पारस को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिगड़ा ने मान्यता भी दे दी। नतीजा एलजेपी दो धड़ों में बंट गई। चिराग पासवान अकेले बचे

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