मिट्टी के चुल्हे से बने स्वादिष्ट भोजन का स्वाद और सुगन्ध की यादे

मन आज भी मिट्टी के चूल्हे से आती नैसर्गिक गंध चूल्हे पर पकते भोजन की सुगंध गाय के गोबर से लिपे पुते घर आंगन से आती खुशबू में ही उलझा रहता है हालात ने भले ही महानगरों में रहने के लिए पांव में बेड़ियां डाल रखी हो पर मन पर किसी का जोर नहीं। मन अक्सर दो दशक पूर्व के उन दिनों में चला जाता है जब घर के छत भले ही खप्पर के थे पर इरादे बुलंद थे पूरा परिवार एक साथ बैठकर एक छत के नीचे भोजन करता था प्रेम ऐसा की एक ही जोड़ी कपड़े और एक ही जोड़ी जूते से कई लोग काम चला लिया करते थे आवश्यकताएं सीमित थी प्रेम अपनापन असीमित। पैसे से इंसान कभी खुशियां नहीं खरीद सकता पैसे से वह अपने जीवन के आवश्यकता को खरीद सकता है खाने पीने की चीज संपदा कपड़े खरीद सकता है पर खुशियां कदापि नहीं खुशियां तो उस जड़ अंतिम गांठ में समाहित होती है जहां से इंसान निकलकर ऊपर की तरफ बढ़ता है जो वापस नहीं लौट पाता वह जिंदगी का असली आनंद नहीं उठा पाता है। इंसान का जीवन उस पतंग की भांति होता है जो आसमान में विचरण करता है पर उसकी असली डोर नीचे जमीन पर किसी के हाथ में होती है ज्यादा ऊंचा उड़ने की फिराक में वह अपनी डोर को तोड़ कर विलीन हो जाता है। जीवन को सुखमय बनाने की असली खुराक आपके पास खुद है अपने इर्द-गिर्द छोटी-छोटी चीजों में खुशियां तलाशे।

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