सीतारामम की खूबसूरती

हनु राघवपुड़ी द्वारा निर्देशित तेलगु फिल्म “सीतारामम” देखी जा चुकी है। फिल्म हमारी आशाओं से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत है। मोबाइल स्क्रीन पर देखने पर आपको बड़े पर्दे की कमी बहुत खलेगी। यह फिल्म पैंतालीस-पचास फीट के आकार में ही देखने योग्य है। मोबाइल स्क्रीन पर इस बेहतरीन फिल्म को देखना फिल्म की वंचना होगी।

बहरहाल, फ़िल्म पर आते हैं,

सीतारामम की कहानी कहने सुनने से पहले हम इसके टाइटल पर चर्चा कर लेते हैं। फ़िल्म का टाइटल है “सीतारामम” यह टाइटल ही फ़िल्म के प्रति अनुराग जगाने के लिए पर्याप्त है। लेखक-निर्देशक को यह नाम चुनने की बधाई!

फ़िल्म की कहानी का प्लॉट एक बड़े कैनवस पर सलीके से खींचा गया है। कहानी का गठन एक पल के लिए भी उबाऊ या आंखें बंद कर लेनै वाला नहीं है। कहानी की‌ रॉ पिक्चर ही इतनी आकर्षक है कि फ़िल्म को ना नहीं कहा जा सकता।

सिक्स पैक्स, एट पैक्स, अधनंगी टांगें देखने के इच्छुक इस फ़िल्म से निराश होंगे। चूंकि यह फ़िल्म सिनेमा को कला के तौर पसन्द करने वाले प्रबुद्ध दर्शकों के लिए बनी है। वे दर्शक जो दसियों साल से सिनेमा हॉल इसलिए नहीं गए क्योंकि उनके स्तर की, उनके टेस्ट की फ़िल्में बननी बंद हो गई हैं, वे खुशी-खुशी इस फ़िल्म को देख सकते हैं। उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा।

फ़िल्म की कहानी दो सहोदर राष्ट्रों के मध्य बोए गए ज़हर के दुष्परिणामों की पड़ताल करती है। ये कहानी हमें तमाम आंतरिक लूप्स की ओर ले जाती है। कश्मीर जैसे हॉट टॉपिक की वजहों की खोजबीन में फ़िल्म शुरु से ही बाँधने लगती है। फ़िर कदम-कदम पर धर्म के परे जाकर मानवता की रक्षा का संदेश भी देती है।

कश्मीर की गोलियों के बीच एक दिलकश प्रेम कहानी जन्म लेती है और वह फ़िल्म का हार्ट बन जाती है। सीता महालक्ष्मी और राम की प्रेम कहानी।

सीता महालक्ष्मी यह नाम भी कतिपय सोच-विचार के बाद रखा गया होगा और यह दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान लाता है। नाम से ही उत्साहित दर्शक जब सीता महालक्ष्मी के दर्वन पांवेगे तो उनकी धड़कनें रुक ही जाएंगी। लम्बे बाँधों में वेणी बनाकर लाल गुलाब टांके, सफ़ेद प्रिंटेड साड़ी में, आंखों में गहरा काजल डाले, आँखों से बोलती सीता महालक्ष्मी का फर्स्ट लुक! वाह! ज्यों रेगिस्तान में प्यासे को पानी मिल जाए। सीता महालक्ष्मी का किरदार निभाती मृणाल ठाकुर वैसे ही दर्शकों के सामने आती हैं। दर्शक का मन मृणाल के एक लुक से भरता नहीं, मृणाल जितनी बार सामने आती हैं, दिलो-दिमाग पर छा जाती हैं। वे अपनी अभिनय क्षमता का लोहा भी मनवाती हैं। कहानी के सेवेन्टीज़ प्लॉट पर अभिनय करते हुए वे एक इशारा भी मिस नहीं करतीं। यह अभिनेता का ऐसा गुण है जो उसे सार्वकालिक बनाता है।

राम सेना का जवान है। सुंदर है, सज्जन है किन्तु अनाथ है। उसके अनाथ होने के प्वाइंट से फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ती है। राम की जाबांजी पर गर्व करने के कई क्षण फ़िल्म हमें देती है। राम जितना जाबांज सैनिक है, उतना ही समर्पित प्रेमी भी। वह सीता महालक्ष्मी के लिए कश्मीर छोड़़ आता है। और अंततः उसे खोज निकालता है। राम के किरदार की जाबांजी ना तो हाइप क्रिएट करती है और ना ही राम की सहृदयता ओवरडोज लगती है। इस किरदार का विभिन्न प्लॉट पर समन्वय अद्भुत है। दुलकर सलमान ने राम के किरदार को आत्मसात करके ही यह फिल्म की है,यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है।

यह प्रेम कहानी आगे बहुत से मोड़ लेती है। लेकिन इसकी छुअन बसंत सी है। बिना कोई करीबी दिखाए फ़िल्म राम और सीता की प्रेम कहानी में दर्शक को डुबो देती है। जब सीता राम मिलेंगे तो दर्शक उस मिलन की गहनता में डूब जाएँगे और जब वे दोनों अलग होंगे तो दर्शक आंसुओं में डूब जाएँगे खासतौर पर वे जो प्रेमी हैं।

कहानी को आगे ले जानी वाली है दक्षिण काई सुन्दर अभिनेत्री रश्मिका मंदाना! लंदन से हैदराबाद, हैदराबाद से कश्मीर तक आफ़रीन के किरदार को खींचती रश्मिका कहानी को धीरे-धीरे दर्शकों के सामने लाती हैं। उनका किरदार किसी जासूस जैसा लगता है।

कई प्रतिष्ठित नाम फ़िल्म में छोटी किन्तु प्रभावशाली भूमिकाओं में मौजूद हैं। जैसे भूमिका चावला, प्रकाश राज, तरूण मेनन आदि।

फ़िल्म का निर्दशन किया है हनु राघवपुड़ी ने। उनको साधुवाद कि उन्होंने यह जोख़िम उठाया और पूरा भी किया कि वे बाजारू सिनेमा के पैटर्न से हटकर कलात्मक, बौद्धिक व स्वस्थ मनोरंजन दर्शकों के सामने ले आएँगें। फ़िल्म का कसाव इतना बढ़िया है कि आँखें हटती नहीं हैं। कहते हैं निर्देशन फ़िल्म की जान होती है, तो मानना होगा कि निर्देशक ने सीतारामम को भाव बनाकर उतार दिया। यह फ़िल्म कल्ट क्लासिक में रखी जा सकती है। मेरा मानना है कि निर्देशन के स्तर पर फ़िल्म बहुत कम स्थानों पर स्लिप करती है जिसे शायद सूक्ष्म फ़िल्म समीक्षक ही ठीक से समझा सकें।

फ़िल्म के गीत-संगीत पर टिप्पणी करने का अधिकार दक्षिण भाषाई समझ रखने वाले के अधिकार क्षेत्र में है। हिन्दी में संवाद डबिंग में की गई कोशिश को सौ में से नब्बे अंक दिए जा सकते हैं किन्तु गीतों में उबाऊपन नहीं गया। फ़िल्म पूरी देखने की लोलुपता दृश्यों के साथ जबरन सामंजस्य बिठा लेती है। दृश्यों के साथ आँखें यूँ चिपकी रहती हैं कि गीतों का असंगत होना खलता नही है। लेकिन इसपर और अच्छा किया जा सकता था।

इस फ़िल्म का बजट केवल तीस करोड़ रुपए है। बिल्कुल तीस करोड़ मात्र! फ़िर भी कहीं भी कोई कमी नहीं लगती। यह तथ्य इस बात की पुष्टि करता है कि अच्छा सिनेमा चार सौ करोड़ का बजट नहीं माँगता। अच्छा सिनेमा केवल अच्छी कहानी, अच्छा कलाकार, अच्छा निर्देशक और अच्छी सिनेमैटोग्राफी माँगता है।

फ़िल्म मस्ट वॉच है। नहीं देखी है तो देखिए।

दो‌ सितम्बर को पर्दे पर प्रकाशित हुई फ़िल्म का हिन्दी वर्जन हॉटस्टार पर उपलब्ध होने के बाद अधिकांश ने सिनेमा का यह जादुई कमाल देख ही लिया होगा, फ़िर भी इस जादुई पुड़िया पर कुछ न लिखना इस फ़िल्म के साथ धोखा होगा, इसलिए लिखा।

(अनूप नारायण सिंह वरिष्ठ फिल्म पत्रकार तथा वर्तमान में फिल्म सेंसर बोर्ड कोलकाता एडवाइजरी कमेटी के सौजन्य से)

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