गीता को आचरण में उतारने वाले चिंतक थे हृदय नारायण : डॉ सुलभ

पटना। प्रज्ञ-चिंतक और भारतीय वांगमय के मनीषी भाष्यकार कवि हृदय नारायण, हिन्दी की सेवा करने वाले पिछली सदी के महान चिंतक कवियों में अग्र-पांक्तेय थे। उन्होंने गीता को न केवल समझा था, अपितु उसे वाणी और आचरण में उतारा था। वे मानते थे कि भारतीय-दर्शन में आधुनिक-समाज की सभी समस्याओं का निदान और सभी प्रश्नों के उत्तर अंतर्निहित हैं।
यह बातें गुरुवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती एवं पुस्तक-लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि हृदय नारायण जी हिन्दी-साहित्य के साधु-पुरुष थे। उनकी आध्यात्मिक और साहित्यिक साधना साथ-साथ चली। भारतीय दर्शन पर उन्होंने तीन दर्जन से अधिक ग्रंथों की रचना की, जो आनेवाली पीढ़ियों का मार्ग-दर्शन करते रहेंगे।
इस अवसर पर, डा अमलेश वर्मा एवं डा रागिनी वर्मा को, हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में अत्यंत मूल्यवान सेवाओं के लिए, ‘प्रज्ञ चिंतक हृदय नारायण-कल्याणी स्मृति सम्मान’ से विभूषित किया गया। समारोह के उद्घाटन-कर्ता और राज्य उपभोक्ता संरक्षण आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति संजय कुमार तथा समारोह के मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति राजेंद्र प्रसाद ने प्रत्येक को प्रशस्ति-पत्र, स्मृति-चिन्ह, वंदन-वस्त्र एवं पुष्पहार समेत दो हज़ार एक सौ रुपए की सम्मान-राशि प्रदान कर सम्मानित किया।
अध्यक्ष और अतिथियों ने इस अवसर पर, वरिष्ठ साहित्यकार मार्कण्डेय शारदेय की पुस्तक ‘डुमराँवनामा’ का भी लोकार्पण किया। अपने संबोधन में न्यायमूर्ति कुमार ने कहा कि हृदय नारायण जी एक महान साहित्यकार ही नहीं एक महान स्वतंत्रता-सेनानी भी थे। यह दुखद है कि आज की पीढ़ी ऐसे महापुरुषों को भूलती जा रही है। साहित्य सम्मेलन ऐसी वभूतियों को स्मरण कर अपना राष्ट्रीय धर्म पूरा कर रहा है।
समारोह के मुख्यअतिथि न्यायमूर्ति राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि हृदय नारायण जी का व्यक्तित्व, कृतित्व और साहित्य समाज का मार्ग-दर्शन करता है। हृदय जी की विशेषता यह थी कि वे जीवन और समाज का सारा कर्तव्य पूरा करते हुए भी अपनी आत्मा की खोज में भी लगे रहे। उनके साहित्य से विदित होता है कि उनकी खोज बहुत हद तक पूरी हो चुकी थी।
पुस्तक पर अपनी राय रखते हुए, सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि डुमराँव के लगभग पाँच सौ वर्षों का इतिहास जिस लालित्यपूर्ण ढंग से श्री शारदेय ने लिखा है, वह अद्भुत है। यह पुस्तक उनकी आत्म-कथा भी है और डुमराँव के महान सांस्कृतिक अवदान की गौरव-गाथा है। इसमें सांस्कृतिक-विरासत भी है और साहित्य का इतिहास भी।
आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए, सम्मेलन के प्रधानमंत्री और विद्वान समालोचक डा शिववंश पाण्डेय ने कहा कि हृदय नारायण जी एक पूर्ण आध्यात्मिक व्यक्तित्व और संत साहित्यकार थे। उनकी यशोकाया की उपस्थिति का हम आज भी अनुभव कर सकते हैं।
स्मृति शेष हृदय नारायण के पुत्र और सुप्रसिद्ध शिशुरोग विशेषज्ञ डा निगम प्रकाश नारायण ने भावुक स्वर में अपने पिता को स्मरण किया और कहा कि हृदय नारायण जी ने एक छोटे से गाँव से अपनी संघर्षपूर्ण जीवन की यात्रा की। कृष्ण उनके आदर्श थे। मेरी माँ कल्याणी नारायण ने एक समर्पित गृहिणी की तरह उनका पग-पग पर साथ दिया। यह गौरव का विषय है कि साहित्य सम्मेलन के तत्त्वावधान में इन दोनों विभूतियों के नाम से, प्रति वर्ष एक विदुषी और एक विद्वान सम्मानित किए जाते हैं।
विशिष्ट अतिथि डा शाह अद्वैत कृष्ण, सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, डा कल्याणी कुसुम सिंह, हृदय नारायण जी के दूसरे पुत्र डा निर्मल प्रकाश नारायण, डा निकुंज प्रकाश नारायण, पुत्रवधू डा संगीता नारायण, किरण नारायाण, डा विनीता नारायण तथा वीणा प्रसाद ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि-सम्मेलन में, वरिष्ठ कवि बच्चा ठाकुर, कुमार अनुपम, शायरा तलअत परवीन, प्रो सुनील कुमार उपाध्याय, डा सुषमा कुमारी, डा जय प्रकाश पुजारी, अर्जुन प्रसाद सिंह, शंकर शरण मधुकर, ई अशोक कुमार, अश्विनी कुमार, अंकुर वैभव, अरविंद कुमार वर्मा आदि ने काव्य-पाठ कर समारोह को रस और आनंद प्रदान किया। मंच का संचालन ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।
प्रो सुशील कुमार झा, डा मुकेश कुमार ओझा, कवयित्री ऋचा वर्मा, डा नीरजा कृष्ण डा अरुण कुमार सिन्हा, रीना देवी, सच्चिदानंद शर्मा, दुःख दमन सिंह, अमन वर्मा आदि बड़ी संख्या में प्रबुद्ध जन उपस्थित थे।

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