चंबल महज एक धारा नहीं,पूरी विचारधारा…
मुकेश शर्मा
चंबल: बगावत और बलिदान के काल में चम्बल धरा ने द्रोपदी की बगावत को देखा। तब पहली बार यहां चंबल के किनारे चमड़ा सुखाने की परंपरा बंद करायी गई। शायद यह पर्यावरण बचाने का आदि संदेश था। मध्यकाल में भी दिल्ली की सत्ता कभी इस इलाके को काबू में नहीं रख सकीं। दिल्ली के बगावती तब चंबल के बीहड़ों में शरण लेते। फिर तो यहां के बीहड़ बगावत का एक सिलसिला ही बन गए। आजादी आंदोलन में अंग्रेजों को सबसे बड़ी चुनौती चंबल के इलाकों में इसी रवायत के चलते मिली। व्यक्तिगत उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ भी बगावत की अभिव्यक्ति चंबल में जारी रही। बंदूक उठाकर बीहड़ में कूदना और जालिमों को मटियामेट करने का मुहावरा बन गया चंबल। 955 किमी लंबी चंबल नदी के साथ दौड़ते बीहड़ों और जंगलों में क्रांतिकारियों, ठगों, बागियों-डाकुओं के न जाने कितने किस्से दफन हैं।
देश की आजादी का यह हीरक वर्ष चल रहा है। भारत सरकार जोर-शोर से अमृत महोत्सव मना रही है लेकिन चंबल के बीहड़ों में सरकारी कारिन्दे पहुंचने से कतरा रहे हैं। शायद वह बिलायती बबूल के कांटों से उलझना नहीं चाहते। 1857 की जनक्रांति का ह्रदयस्थल पचनदा सामरिक और छापामार जंग की दृष्टि से सबसे अहम इलाका माना जाता रहा है। हजारों क्रांतिकारियों ने पचनदा पर इकट्ठा होकर इसे क्रांति का सबसे बड़ा केन्द्र बनाया और आज़ादी की पहली जंग का आगाज़ किया था। राष्ट्रीय स्तर का नेतृत्व इसी केन्द्र से 1872 तक लगातार अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ शंखनाद कर अंग्रेजों के नाक में दम करता रहा। यही वह जगह है। जहां अंग्रेजों को क्रांतिवीरों की लाशों के ऊपर से गुजरना पड़ा। क्रांति की जितनी अच्छी तैयारी चंबल में थी, उतनी अच्छी देश में कहीं और दिखाई नहीं देती है। यहां के लड़ाका ताकतों के संयुक्त मोर्चा की ललकार के सामने अंग्रेजी सेना टिक ही नहीं पाती थी। खाली और आधा पेट लड़ रहे चंबल के बहादुर रणबांकुरों को न तो वेतन मिलता था और न ही पेंशन। आजादी की यह लड़ाई केवल जनता के सक्रिय सहयोग से चलती थी।
चंबल को नर्सरी आफ सोल्जर्स यानी सिपाहियों की नर्सरी कहा जाता है। 1857 के आजादी के पहले आंदोलन में जब पूरे देश में क्रांति के केन्द्र ध्वस्त कर दिये गये, हजारों शहादतें हुईं, हजारों महानायकों को कालापानी भेज दिया गया, उस वक्त देश भर के क्रांतिकारी चंबल के आगोश में खिंचे चले आये। इसीलिए यह धरती महान स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों का ट्रेनिंग सेंटर बन पायी। जननायक गंगा सिंह, रूप सिंह सेंगर, निरंजन सिंह चौहान, जंगली-मंगली बाल्मीकि, पीतम सिंह, बंकट सिंह कुशवाह, चौधरी रामप्रसाद पाठक, गंधर्व सिंह, भैरवी, मुराद अली खां, काशीबाई, शेर अंदाज अली, चिमना जी, तेजाबाई, शेर अली नूरानी, चुन्नी लोधी, ताज खां मेवाती, शिवप्रसाद, हर प्रसाद, मुक्खा, गेंदालाल दीक्षित, बागी सरदार पंचम सिंह, लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी,पं राम प्रसाद बिस्मिल, भारतवीर मुकंदीलाल गुप्ता, डोंगर-बटरी,लोकमन उर्फ लुक्का दीक्षित, रूपा पंडित,पुतली बाई,लाखन सिंह तोमर,पान सिंह तोमर जैसे आजादी के पहले तमाम करिश्माई बागी/ योद्धाओं के लिए चंबल की घाटी शरणस्थली बनी रही। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की फौज में सबसे ज्यादा सैनिक चम्बल घाटी से ही थे। यह घाटी फौज में आज भी अपने नौनिहालों को देश की रक्षा के लिए भेजती है।
1857 के बाद भी लगातार चंबल से इंकलाब का बिगुल बजता रहा। 1916 में बने उत्तर भारत के गुप्त क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी’ की सेन्ट्रल कमेटी में 40 क्रांतिकारी सदस्यों में से 30 चंबल के ‘बागी’ ही शामिल थे। इस इलाके से देश में आजादी का बसंत लाने के लिए अनोखे प्रयोग निरंतर चलते रहे। दुनिया भर में सबसे ज्यादा लंबा चलने वाले आंदोलन में करीब सात लाख नौजवान अपना लहू देकर देश की मिट्टी को सुर्खरु कर गए। यहां के वीर रणबांकुरों ने चीनी मुक्ति संग्राम में भी अपनी आहुति दी, जो आज भी यहां के लोगों के स्मृतियों में कैद है।
चंबल में बहता पानी भले ही शांत, ठहरा और साफ-सुथरा दिखता हो लेकिन हकीकत यह है कि बीहड़ों में जिंदगी उतनी ही उथल-पुथल भरी है। एक साजिश के तहत हमेशा से चंबल क्षेत्र को डार्कजोन बना कर उपेक्षित रखा गया जबकि उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान तक फैला यह विशाल बीहड़ क्रांतिकारियों की शरणस्थली के रूप में मशहूर रहा है। आज आजादी के 75 वें वर्ष में भी क्रांतिकारियों के वारिसों को सत्ता के हाथों अपमान के अलावा और कुछ भी हाथ नहीं लगा है। आज सबसे बड़ा सवाल मुंह बाये खड़ा है कि सबसे ज्यादा कुर्बानी देने वाली यह सरजमीं इतनी उपेक्षित क्यों है? बात केवल सत्ता की नहीं है, जनता भी इसके लिए उतनी ही जिम्मेदार है। आज हम लोग चंबल के जननायकों के नाम तक नहीं जानते।
चंबल की धरा पर पैनी निगाह रखने वाले लेखक शाह आलम जिन्होंने साइकिल से करीब 3 हजार किलोमीटर का सफर चंबल की संस्कृति को समझने और उसपर दर्जन भर किताबें लिखने में जीबन का बहु मूल्य समय खर्च किया कहते हैं कि तब की चंबल आजादी के दीवानों से भरी पड़ी थी। आज का चंबल विकास को महरूम है। ऐसा नहीं कि बिल्कुल काम नहीं हुआ पर अपेक्षा के अनुरूप नहीं हुआ। वहीं वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का कहना है कि चंबल बीहड़ और बागियों से तो मुक्त होगई परंतु सरकारी संरक्षण प्राप्त डकैत हावी हैं हालांकि ये समस्या अकेले चंबल की नहीं पूरे देश की है परंतु इसपर अंकुश लगाना बहुत आवश्यक है।
आजादी से पहले के चंबल में जातिवाद और धर्म की दीवार नहीं थी लोग जाति और धर्म की दीवारों को तोड़ कर कंधे से कंधा मिलाकर अपनी जान की बाजी लगा रहे थे। आज खुद उनके वारिस उन्हें भुला चुके हैं।
तीन राज्यों में फैली चंबल घाटी में एक अदद विश्वविद्यालय बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। संसद की रक्षा समिति के द्वारा चंबल रेजिमेंट के प्रस्ताव पर मुहर के एक दशक बाद भी हुआ कुछ नहीं। आज चंबल के बीहड़ बागियों-डाकुओं से पूरी तरह खाली हैं लेकिन चंबल की बेहतरी के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं हो रहा है। सिर्फ महीने बदलते रहे, कैलेंडर बदलते रहे, नहीं बदली तो चंबल घाटी की किस्मत।