बिहार का साहसी पत्रकार जिसकी रिपोर्ट से बिहार का पहला पॉलिटिकल सेक्स स्कैंडल हुआ उजागर, हिल गई थी सरकार
तारीख 11 मई, 1983 । उस दौर में बिहार के प्रमुख अखबार के मुख्यपृष्ठ पर एक हंगामाखेज खबर छपी थी । यह खबर थी श्वेता निशा त्रिवेदी उर्फ ‘बॉबी’ की मौत की खबर छपी। ये खबर/रिपोर्ट थी पत्रकार सुरेंद्र किशोर की । सुरेंद्र जी रातों रात देश के सबसे चर्चित रिपोर्टर बन गए। बिहार के सचिवालय से लेकर दिल्ली के सत्ता के गलियारे तक सुरेंद्र किशोर की ही चर्चा थी।
ये खबर इसलिए हंगामाखेज थी, क्योंकि श्वेता उर्फ बॉबी थी तो सचिवालय की एक मामूली सी टाइपिस्ट ही, लेकिन उसे “हुस्नपरी” कहा जाता था। जिसकी एक अदा पर सचिवालय डोल जाता था, उसकी मौत आठ तारीख को ही हो चुकी थी और किसी ने तीन दिन तक खबर भी नहीं ली थी ! इस बात से सभी आश्चर्यचकित थे। अखबार में छपी खबर के आधार पर पुलिस जांच करने निकली। साथ ही यह तथ्य भी सामने आया कि बॉबी को जलाया नही, बल्कि दफनाया गया है। खबर के मुताबिक, कदमकुआं के जिस कब्रिस्तान में उसकी लाश दफ़न होने की बात लिखी थी, उसी से उसकी लाश भी निकल आई।
क्षत-विक्षत हो चुके शव पेट में मौजूद विसरा की जांच हुई तो उसमें मिथलिन नाम का जहर भी मिल गया। ये वही जहर होता है जो कई बार जहरीली शराब में मिला होता है और कई की मौत की वजह बनता है। इस रिपोर्ट के बाद पुलिस ने जब जांच शुरू की तो एक-एक कर के बिहार की राजनीति के बड़े कांग्रेसी नेताओं के नाम बाहर आने लगे। ये वो दौर था जब “बॉबी” फिल्म प्रचलित हुई थी। इसी फिल्म की वजह से श्वेता निशा त्रिवेदी को बॉबी बुलाया जाता था। बॉबी ने अपने पहले पति को छोड़ दिया था और दूसरे रिश्ते में दो बच्चों की मां थी। वो विधानसभा में बतौर टाइपिस्ट का काम कर रही थी, मगर वो बिहार विधान परिषद की तत्कालीन चेयरपर्सन राजेश्वरी सरोज दास की गोद ली हुई बेटी भी थी और स्ट्रैंड रोड के सरकारी बंगले में रहती थी।
उस दौर के कांग्रेसी दिग्गज थे राधानंदन झा जिनके सुपुत्र थे रघुवर झा। पुलिस की जांच के मुताबिक, वो सात तारीख की शाम में बॉबी से मिलने कुछ लेकर गए थे। बॉबी को आई.जी.आई.एम.एस. अस्पताल भी किसी विधायक की गाड़ी से ही पहुँचाया गया था। अस्पताल में ही आठ तारीख को सुबह चार बजे के आस पास उसकी मौत हो गई। तीन दिन तक इसकी खबर किसी को नहीं थी ! ग्यारह को अखबार में छपी रिपोर्ट के आधार पर श्वेता निशा त्रिवेदी का शव श्मशान के बदले, कब्रिस्तान से बरामद हुआ। पुलिस की जांच आगे बढ़ती रही, कांग्रेसियों के नाम आते रहे। जिन दो डॉक्टरों ने पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट दी वो भी अलग अलग थी। एक के मुताबिक मौत हेमोरेज (रक्तस्राव) से हुई थी तो दूसरे के मुताबिक, ह्रदयगति रुकने से।
खैर पुलिस ने श्वेता त्रिवेदी के स्ट्रैंड रोड वाले आवास के सुरक्षाकर्मियों के बयान और विसरा में मौजूद जहर के आधार पर चार्जशीट दाखिल करने की तैयार कर ली थी। कर्पूरी ठाकुर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के पुलिस की जांच पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए। कहते हैं उसी वक्त करीब सौ कांग्रेसी विधायक तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के पास पहुंचे और सरकार गिरा देने की धमकी दी। आख़िरकार जांच सी.बी.आई. को सौंप दी गई। फिर वही हुआ जो सी.बी.आई. जांच में होता है। श्वेता निशा त्रिवेदी उर्फ़ बॉबी की मौत आत्महत्या सिद्ध हुई। किसी नेता, किस मंत्री पर कोई आंच नहीं आई। सारा काम सुचारू रूप से चलता रहा।
इस खबर को लेकर पत्रकार सुरेन्द्र किशोर का डंका पूरे बिहार में बजने लगा था । वे धाकड़ पत्रकार थे। कहते हैं उनकी कॉपी इतनी संतुलित होती, कि शायद ही उस पर संपादक को कलम चलानी पड़ती हो। उनकी इस हत्याकांड की तथ्यपरक रिपोर्टिंग के कारण ही बड़े-बड़े सत्ताशीनों की कुर्सी खतरे में पड़ गई थी। सुरेन्द्र जी की ईमानदारी और किसी भी पद, पुरस्कार या राजकीय सम्मान के प्रति उनकी निर्लिप्तता बेमिसाल थी।
सुरेंद्र जी के जनसत्ता के संपादक प्रभाष जी कहा करते थे कि सुरेन्द्र जी जैसे पत्रकार भविष्य में शायद ही हो पाएं। कहते हैं एक बार बिहार के मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव ने उन्हें पटना के पॉश इलाके में ज़मीन देनी चाही, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। उन्होंने लालू को कहा कि वे अपनी झोंपड़िया में ही खुश हैं और वे वहीं रहेंगे। यह बात लालू यादव ने स्वयं जनसत्ता के संपादक और हमारे जोधपुर के मूल निवासी प्रभाष जी जोशी को बताई थी।
उन्हें पत्रकारिता के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति का पद देने का ऑफर भी हुआ, पर सुरेन्द्र जी ने दृढ़ता के साथ इनकार कर दिया। सुरेन्द्र जी लंबे समय तक कर्पूरी ठाकुर के साथ जुड़े थे, जो वैसे ही डेड ऑनेस्ट रहे। शायद उन्ही के संपर्क/जुड़ाव के चलते सुरेंद्र जी भी ईमानदारी से कार्य को अंजाम देते रहे।
कहते हैं किसी को भी नहीं पता था कि सुरेन्द्र जी हैं कहाँ के? उनकी जाति क्या है ?अथवा उनके परिवार में कौन-कौन है?
फिर आया वर्ष 1994 । जनसत्ता अखबार की शीर्ष सम्पादकीय टोली प्रभाष जी के बेटे संदीप की शादी में शामिल होने जोधपुर पहुंची। उस दौरान जब सभी लोग जोधपुर का क़िला देखने गए, तब सुरेंद्र जी ने अपने मित्र शुक्ला जी को बताया, “शुक्ला जी हमारे पूर्वज यहीं से बिहार गए थे।”
यह एक चौकाने वाला खुलासा था। शुक्ला जी ने पूछा, “क्या आप राठौड़ वंश से हो?”
तो वे बोले-” हाँ।”
तभी पता चला कि सुरेन्द किशोर राजस्थान के राठौड़ राजपूत हैं । सभी अवाक रह गए।
सुरेंद्र जी एक किस्सा भी सुनाते हैं कि उनकी पत्नी एक विद्यालय में पढ़ाती थी। वे सुरेंद्र जी को सदैव कमतर समझती रहीं, क्योंकि उनकी सखियों के पति ‘ऊपर’ से खूब कमाते थे।
एक बार वे अपनी सहेलियों के साथ वैष्णो देवी दर्शन को गईं। सिर्फ वे अकेली थीं, बाकी सहेलियों के पति भी साथ थे। कटरा में जिस हलवाई के यहाँ वे सब चाय-नाश्ता कर रही थीं, तभी सुना कि हलवाई किसी परिचित ग्राहक से कह रहा है कि “यार जनसत्ता में कोई सुरेन्द्र किशोर है, वो लिखता जबर्दस्त है। यह खबर पढ़ो। ” उनकी पत्नी की आँखों से यह सुनते ही आँसू निकल आए। सहेलियाँ भी सन्न रह गईं।