विश्व आदिवासी दिवसः झारखंड में 32 जनजातियां, 28 एसटी विधानसभा सीट, फिर तंगहाली में जी रहे राज्य के आदिवासी
गणादेश डेस्कः आज यानि नौ अगस्त विश्व आदिवासी दिवस है। 15 नवंबर 2000 को अलग राज्य के गठन के बावजूद भी आदिवासियों की सूरत और सीरत नहीं संवरी। सूबे में 32 जनजातियां हैं। विधानसभा में 28 एसटी सीटें भी हैं। लेकिन प्रदेश के आदिवासी आज भी तंगहाली में जी रहे हैं। राज्य गठन के बाद से कई सरकारें आईं और गईं। सभी वादा किया मेन स्ट्रीम में लाने का। लेकिन वादे हैं वादों का क्या। रघुवर दास को छोड़ कर झारखंड में पांच आदिवासी नेताओं के हाथ में झारखंड की कमीन रही। बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधुकोडा और हेमंत सोरेन सीएम बने। बावजूद इसके आदिवासियों की तकदीर और तस्वीर नहीं सुधरी। पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा दिसंबर 1994 में प्राथमिक बैठक के दिन घोषित किया गया था। 1982 में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र के कार्यकारी दल की आदिवासी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र की कार्यकारी पार्टी की पहली बैठक की गयी।
चिंतानजक हैं झारखंड में आदिवासियों के आंकड़े
झारखंड में आदिवासियों के आंकड़ें भी चिंताजनक हैं। 1951 में एकीकृत बिहार के समय आदिवासियों की जनसंख्या 36 फीसदी थी। जो 2011 में घटकर 26 फीसदी तक पहुंच गई। कुल 10 फीसदी की गिरावट हो गई। वहीं 1961 में आदिवासियों की साक्षरता दर लगभग नौ फीसदी थी, जो बढ़क 58 फीसदी हो गई। यह एक राहत देने वाली बात है। हालाकि इन तमाम सवालों के बीच वर्तमान सरकार ने आदिवासियों के लिए कुछ अलग पहल की है. मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा पारदेशीय छात्रवृत्ति योजना के जरिए दस होनहार छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा रहा है. जनजातीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए जाहेर स्थान, सरना, मसना और हड़गड़ी को विकसित किया जा रहा है. अब यह समाज राजनीति के केंद्र में आ गया है. पिछले दिनों रांची में भाजपा ने जनजातीय महारैला का आयोजन किया था. भाजपा का दावा है कि उसे आदिवासियों की फिक्र है. इसी वजह से द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने में अहम भूमिका निभाई. अब हेमंत सरकार ने जनजातीय महोत्सव का आयोजन कर एक नई बहस छेड़ दी है.