सप्तश्रृंगी मंदिर : एक साल में यहां देवी के दो रूप नजर आते हैं
महाराष्ट्र के नासिक के वणी गांव में सप्तश्रृंगी मंदिर स्थित है। मान्यतानुसार, महाराष्ट्र में देवी के साढ़े तीन शक्तिपीठ में से अर्धशक्तिपीठ वाली सप्तश्रृंगी देवी नासिक से करीब 65 किलोमीटर की दूरी पर 4800 फुट ऊंचे सप्तश्रृंग पर्वत पर विराजित हैं। मंदिर के एक तरफ गहरी खाई और दूसरी ओर ऊंचा पहाड़ है। सप्तश्रृंगी माता को अर्धशक्तिपीठ के रूप में पूजा जाता है।
मंदिर मां की मूर्ति आठ फुट ऊंची है इस प्रतिमा की 18 भुजाएं हैं। मुख्य मंदिर तक जाने के लिए करीब 472 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। चैत्र और अश्विन नवरात्र में यहां विशेष उत्सव होते हैं। एक साल में यहां देवी के दो रूप नजर आते हैं। कहते हैं कि चैत्र में देवी का स्वरूप प्रसन्न तो अश्विन नवरात्र में गंभीर दिखता है।
इस पर्वत पर पानी के 108 कुंड हैं, जो इस स्थान की सुंदरता को कई गुना बढ़ाते देते हैं। यह मंदिर छोटे-बड़े सात पर्वतों से घिरा हुआ है इसलिए यहां की देवी को सप्तश्रृंगी यानी सात पर्वतों की देवी कहा जाता है। यहां की गुफा में तीन द्वार हैं शक्ति द्वार, सूर्य द्वार और चंद्रमा द्वार। इन तीन दरवाजों से देवी की प्रतिमा देखी जा सकती है।
पौराणिक कथा
सप्तश्रृंगी माता को ब्रह्मस्वरूपिणी के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि ब्रह्म देवता के कमंडल से निकली गिरिजा महानदी देवी सप्तश्रृंगी का ही रूप है। सप्तश्रृंगी की महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती के त्रिगुण स्वरूप में भी आराधना की जाती है।
माता के इस रूप से जुड़ी दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार, महिषासुर राक्षस के विनाश के लिए जब सभी देवी-देवताओं ने मां की आराधना की थी तभी देवी मां सप्तश्रृंगी अवतार में प्रकट हुईं और इसी जगह पर उन्होंने महिषासुर ये युद्ध करते हुए उसका वध किया था।
इस मंदिर में देवी की मूर्ति के 18 हाथ हैं, जिनमें उन्होंने अलग-अलग अस्त्र-शस्त्र पकड़े हुए है। देवी की इन 18 भुजाओं के बारे में कहा जाता है कि सभी देवताओं ने महिषासुर राक्षस से लड़ने के लिए उन्हें अपने शस्त्र प्रदान दिए थे। इसमें शंकरजी का त्रिशूल, विष्णु जी का चक्र, वरुण का शंख, अग्निदेव का दाहकत्व, वायु का धनुष-बाण, इंद्र का वज्र और घंटा, यम का दंड, दक्ष प्रजापति की स्फटिक माला, ब्रह्मदेव का कमंडल, सूर्य की किरणें, काल स्वरूपी देवी की तलवार, क्षीरसागर का हार, कुंडल और कड़ा, विश्वकर्मा का तीक्ष्ण परशु और कवच, समुद्र का कमल हार, हिमालय का सिंह वाहन और रत्न आदि हैं।
महिषासुर का मंदिर
मंदिर की सीढ़ियों के शुरू होते ही बायीं तरफ महिषासुर मंदिर नामक एक छोटा मंदिर भी बना हुआ है, जिसमें भैंसा के पीतल से बने कटे हुए शीष की पूजा की जाती थी। मान्यता है कि देवी ने इसी स्थान पर महिषासुर का वध किया था। यहां जाते हुए एक गणेश-मंदिर और एक राम मंदिर के भी दर्शन होते हैं।
यहां पर स्थित सह्याद्री पर्वतों की एक श्रृंखला का एक पर्वत गौर से देखने पर एक अत्यंत चकित करने वाली चीज दिखाई देती है। वह यह कि इस पर्वत पर एक छेद दिखाई देता है जिसके बारे में मान्यता है कि जब देवी ने महिषासुर को वध करने के लिए उस पर त्रिशूल से प्रहार किया जिस वजह से उस त्रिशूल की शक्ति से उस पर्वत में छेद हो गया बना, जो आज भी यहां है।
पौराणिक किवदंतियों के अनुसार, किसी भक्त द्वारा मधुमक्खी का छत्ता तोड़ते समय उसे यह देवी की मूर्ति दिखाई दी थी। पुराणों के अनुसार, महिषासुर राक्षस के विनाश के लिए देवी-देवताओं ने मां की आराधना की, जिसके बाद देवी यहां सप्तश्रृंगी रूप में प्रकट हुई थीं। देवी की यहां महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के त्रिगुण रूप में भी आराधना की जाती है। पौराणिक कथाओं में उल्लेख मिलता है कि महिषासुर के वध के बाद, देवी आराम करने के लिए यहां रहती थीं। धार्मिक मान्यतानुसार, राम-सीता वनवास के दौरान देवी के दर्शन करने आए थे।