महाराजा अग्रसेन जी की 5177वां जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जायेगा

रांची: अग्रवाल सभा, रांची जिला मारवाड़ी सम्मेलन एवं मारवाड़ी सहायक समिति के प्रवक्ता सह मीडिया प्रभारी संजय सर्राफ ने बताया है कि महाराजा अग्रसेन जी की जयंती अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि यानि शारदीय नवरात्रि के पहले दिन हर वर्ष अग्रसेन जी की जयंती मनाई जाती है। महाराजा अग्रसेन जी पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की 34 वीं पीढी में जन्म हुआ था। वे समाजवाद के युगपुरुष रामराज्य के समर्थक एवं महादानी थे तथा महाराजा अग्रसेन जी का विवाह नाग लोक के राजा कुमुद के स्वयंवर में राजकुमारी माधवी से हुआ। इस विवाह से नाग और आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। माता लक्ष्मी जी की कृपा से श्री अग्रसेन जी के 18 पुत्र हुए‌, इन्हीं 18 गुरुओं के नाम पर अग्रवाल समाज की स्थापना हुई जो आज भी अग्रवाल समाज 18 गोत्र के नाम से जाने जाते हैं। अग्रसेन जी धार्मिक शांति दूत प्रजा हिंसा विरोधी, बलि प्रथा बंद करने वाले करुणा निधि तथा सब जीवों से प्रेम स्नेह रखने वाले दयालु राजा थे। 15 अक्टूबर को श्री अग्रसेन जी का 5177 वां जन्मोत्सव मनाया जा रहा है।
अग्रवाल समाज का विकास अग्रोहा से हुआ इसके लिए किसी इतिहास आदि के प्रमाण की जरूरत नहीं है। अग्रवाल अपने गौत्रों की तरह अपने मूल स्थान को भी पीढ़ी दर पीढ़ी याद रखता है। महाभारत काल में (महाभारत में वर्णित) नकूल और कर्ण द्वारा भारत विजय के आधार पर अग्रोहा का निर्माण कलियुग से 5060 वर्ष पूर्व का माना जाता है। जिसकी स्थापना महाराजा अग्रसेन जी ने की थी। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग 5100 वर्ष पूर्व राजा धनपाल जी की छठी पीढ़ी में प्रताप नगर के राजा बल्लभ के यहां हुआ था। प्रताप नगर का स्थान राजस्थान के श्री गंगानगर के आसपास का माना जाता है। महाराजा अग्रसेन जब युवा अवस्था में पहुंचे तो उस समय नागराज महिधर ने अपनी कन्या माधवी के लिए स्वयंवर रचाया। भूलोक के अनेक राजाओं के साथ देवराज इंद्र भी इस स्वयंवर में आए। नाग कन्या माधवी ने वरमाला महाराजा अग्रसेन के गले में डाल दी। यह विवाह दो संस्कृतियों का मिलन था। देवराज इंद्र नाग कन्या माधवी पर मोहित था तथा उससे विवाह रचाकर नागवंश को अपने साथ करना चाहता था परंतु इसमें उनको सफलता नहीं मिली। इससे उनके मन में महाराज अग्रसेन के प्रति द्वेष उत्पन्न हो गया और उनके राज्य में वर्षा बंद कर दी। इससे प्रताप नगर में भयंकर आकाल पड़ गया तथा चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। इस पर महाराज अग्रसेन ने देवराज इंद्र पर चढ़ाई कर दी। महाराजा अग्रसेन के पास जो नैतिक बल था उसके सामने देवराज इंद्र की सेना नहीं टिक पाई और घबराकर युद्ध से भाग गया। इस अवस्था में देवराज इंद्र ने देवर्षि नारद को महाराज अग्रसेन के पास संधि के लिए भेजा तथा देवर्षि नारद ने महाराजा अग्रसेन व देवराज इंद्र के बीच संधि करा दी। अकाल की स्थिति में महाराजा अग्रसेन जी ने धन के सारे भंडार प्रजा के लिए खोल दिए। राज्य के अन्य भंडार खाली हो गए। भण्डारी ने राजमहल के उपयोग के लिए कुछ भण्डार बचा लिया था। भूख से प्रजा का बुरा हाल था। महारानी माधवी को जब स्थिति का पता चला, उन्होंने भण्डारी को डांटा और कहा कि राजा पिता के समान होता है और पिता का कर्तव्य है कि स्वयं भूखा रहकर बच्चों की उदर पूर्ति करे। उन्होंने राजमहल की सारी सामग्री अन्न आदि प्रजा में वितरित करा दी। राज परिवार के सदस्यों ने प्रायश्चित हेतु उपवास शुरू कर दिया। महाराजा अग्रसेन एवं महारानी माधवी ने धन-धान्य की देवी लक्ष्मी जी की अराधना शुरू की। महालक्ष्मी जी ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए तथा वरदान दिया कि पुत्र मैं तेरे कुल की देवी बनकर रहूंगी तेरे कुल को कभी भी किसी को भी कोई अभाव नहीं रहेगा तथा उन्हें महा प्रतापी होने का आशीर्वाद दिया। महालक्ष्मी जी ने महाराजा अग्रसेन को अपना अलग राज्य स्थापित करने को भी कहा। महालक्ष्मी जी से आशीर्वाद का कवच पहनकर महाराजा अग्रसेन जी ने अपने मंत्री परिषद के साथ भ्रमण किया। उन्होंने देखा कि झाड़ी की ओट में एक सिंहनी बच्चे को जन्म दे रही है। महाराजा अग्रसेन के लाव लश्कर को देखकर उसके प्रसव में बांधा पड़ी तथा कुछ ही क्षणों में सिंहनी के प्राण पखेरू उड़ गए। सिंहनी के जन्मे नवजात शावक ने क्रोधित हो बड़ी तेजी से समीप खड़े हाथी पर प्रहार किया। महाराजा अग्रसेन जी इस दृश्य से काफी प्रभावित हुए तथा उनके दिमाग में यह बात बैठ गई कि निश्चय ही यह वीर भूमि है और यहां जन्म लेने वाले लोग वीर, पराक्रमी एवं साहसी होंगे। इस प्रेरणा से प्रेरित होकर उन्होंने इस भूमि पर अपने राज्य की राजधानी स्थापित करने का निश्चय किया और उसका नाम अग्रोदक रखा जिसे आजकल अग्रोहा के नाम से जाना जाता है। अग्रोदक सवा लाख धरों की सुव्यवस्थित बस्ती थी।
महाराजा अग्रसेन ने एक तंत्रीय शासन प्रणाली को समाप्त कर विश्व में सर्वप्रथम अपने ढंग की अनोखी लोक तन्त्रीय शाखा प्रणाली का शुभारंभ किया। सम्राट बनकर अपने राज्य में समाजवाद की प्राण प्रतिष्ठा की। समाजवाद के माने सभी सम्पति समाज की, उन्होंने इसी सिद्धांत को प्रति स्थापित किया। सही माने में वे एक सच्चे प्रथम समाजवादी सम्राट थे। महाराजा अग्रसेन के राज्य में गरीब एवं ऊंचा-नीचा का कोई भेद नहीं था। अपने राज्य में हर नए आने वाले व्यक्ति को एवं मुद्रा एवं ईंट भेंट स्वरूप देने की परम्परा कायम की ताकि सभी समान होकर रहें। इस सभ्यता और संस्कृति ने भारतीय समाज ही नहीं बल्कि विदेशों को भी प्रभावित किया। उनके राज्य में न कोई छोटा न कोई बड़ा, सब समान थे और समाज में पारस्परिक प्रेम, सहयोग, भाई चारा था।

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