जदयू को अलविदा कहने के बाद पूर्व मंत्री डा. मोनाजिर हसन का अगला कदम क्या होगा ?
रंजीत कुमार विद्यार्थी,मुंगेर : बिहार सरकार के पूर्व मंत्री सह बेगूसराय के सांसद रह चुके डा. मोनाजिर हसन ने कुछ ही दिनों पूर्व जदयू को बाय बाय कहते हुए जदयू और राजद पर मुस्लिमों के वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल से संबंधित जो गंभीर आरोप लगाये, उस पर तीखी प्रतिक्रिया होनी थी, लेकिन, बड़ी बात यह कि पार्टी से उनके जुड़ाव को जदयू इस कदर नकार देगा, ऐसा शायद ही किसी ने सोचा होगा. प्रदेश जदयू अध्यक्ष उमेश कुशवाहा ने सीधे तौर पर कहा कि डा. मोनाजिर हसन जदयू में थे ही नहीं, तो छोड़ने की बात कैसी ? नीतीश कुमार के अति करीबी नेता संसदीय कार्य मंत्री विजय कुमार चौधरी ने भी इन शब्दों का दोहराव किया. जदयू की उनकी सदस्यता के संदर्भ में वर्तमान सच क्या है, यह नहीं कहा जा सकता. पर, यह सौ फीसदी सच है कि 02 जुलाई 2018 को भाजपा छोड़ कर वह जदयू में शामिल हुए थे और तत्कालीन प्रदेश जदयू अध्यक्ष सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह ने घर वापसी के तौर पर उनका स्वागत किया था . पार्टी की प्राथमिक सदस्यता भी दी थी . बाद के दिनों में सदस्यता बनी रही , कोई सांगठनिक सक्रियता रही या नहीं , यह बताना कठिन है.
जदयू को अलविदा कहने के बाद अब डा. मोनाजिर हसन का अगला कदम क्या होगा ? इस पर बहसबाजी जारी है।जदयू से अलग होने के बाद अपनी राजनीति को नया मुकाम देने के लिए वह किसी दूसरे दल में शामिल होंगे या अपनी कोई पार्टी बनायेंगे, इसका खुलासा होना अभी शेष है.वैसे, ज्यादा संभावना राष्ट्रीय लोकतांत्रिक जनता दल सुप्रीमो उपेन्द्र कुशवाहा से गलबहियां करने की जतायी जा रही है. जो भी हो राजनीतिक पंडितों की मानें तो उनके इस फैसले से राज्य की राजनीति में भूचाल भले नहीं आये, ‘राजद तो है न’ के सुकून भरे मुगालते में जी रहे जदयू के समक्ष कुछ न कुछ मुश्किलें तो पैदा हो ही जायेंगी.
पूर्व मंत्री डा. मोनाजिर हसन ने राजद से शुरू की थी अपनी राजनीति
राज्य की मुस्लिम सियासत में अच्छा खासा महत्व रखने वाले डा. मोनाजिर हसन की राजनीति राजद से शुरू हुई थी. उसी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में मुंगेर से विधायक चुने गये थे. राबड़ी देवी की सरकार में मंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. राजनीति ऐसा महसूस करती है कि हार के बाद के हालात का सामना करना शायद उनकी फितरत में नहीं है. 2005 में विधानसभा सभा का चुनाव हार गये तब राजद छोड़ सत्तारूढ़ जदयू में शामिल हो गये. तब के दौर में चर्चित इस मुस्लिम चेहरे को खुद से जोड़ जदयू धन्य हो उठा था. उन्हें उनकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा तरजीह मिलने लग गयी थी। उसी क्रम में पार्टी नेतृत्व ने 2009 के संसदीय चुनाव में भूमिहार समाज के बर्चस्व वाले बेगूसराय से जदयू का उम्मीदवार बना राजनीति को चौंका दिया. बड़ी आसानी से वह जीत गये. लेकिन, मुंगेर विधानसभा क्षेत्र से मोह खत्म नहीं हुआ. राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि यही मोह उनकी राजनीति में भटकाव का बड़ा कारण बन गया. जदयू का सांसद बनने के तकरीबन डेढ़ साल बाद 2010 में हुए विधानसभा के चुनाव में वह मुंगेर क्षेत्र की अपनी विरासत पत्नी शबनम परवीन को सौंपना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने पूरजोर कोशिश भी की. उस वक्त अनंत कुमार सत्यार्थी मुंगेर से जदयू के विधायक थे. डा. मोनाजिर हसन का खूंटा उन्होंने ही उखाड़ा था. उन्हें बेदखल कर शबनम परवीन को अवसर उपलब्ध कराना जदयू नेतृत्व के लिए संभव नहीं था.
डा. मोनाजीर हसन रुके नहीं. पूर्व के संबंधों के आधार पर शबनम परवीन को राजद की उम्मीदवारी दिलवा दी. मुख्य मुकाबले में वह रहीं, पर जीत नहीं पायीं. अपने सांसद डा. मोनाजिर हसन का यह आचरण जदयू को नागवार गुजरा. इसके बावजूद शबनम परवीन को उसने 2014 के उपचुनाव में मुस्लिम बहुल साहेबपुर कमाल से उम्मीदवारी दे दी. वहां भी हार ही मिली. भटकाव का सिलसिला आगे बढ़ा. अकल्पित- अप्रत्याशित निर्णय के तहत डा. मोनाजिर हसन जुलाई 2014 में भाजपा से जुड़ गये. चार वर्षों तक भगवा धारण किये रहे. किसी भी रूप में कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ. जुलाई 2018 में फिर से जदयू में शामिल हो गये. लेकिन, वहां भी हाशिए पर ही पड़े रहे. इस बार जदयू से अलग होने के बाद किस्मत खुलती है या नहीं, देखना दिलचस्प होगा । वैसे, 2024 के संसदीय चुनाव में बेगूसराय या मुंगेर से भाजपा के सहयोगी दल की उम्मीदवारी पाने का उन्होंने जो ख्वाब पाल रखा है उसके पूरा होने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं दिख रहे हैं. इस रूप में भी नहीं कि इन दोनों क्षेत्रों में भूमिहार समाज को नाराज कर भाजपा संसदीय चुनाव में अपना राजनीतिक – सामाजिक समीकरण को छिन्न-भिन्न करने का जोखिम शायद ही उठाना चाहेगी. राजनीतिक पंडितों की समझ है कि इन दोनों ही क्षेत्रों में इसी समाज से उम्मीदवार उतारना उसकी विवशता है. लोग इसे जिस दृष्टि से देखें या समझें, फिलहाल जमीनी हकीकत यही है.।