भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की पहली ध्वज थी हूल क्रांति
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास अनेक बड़े और महत्वपूर्ण आंदोलनों से भरा है, जिसमे से एक है संथाल आदिवासियो का आंदोलन- हूल क्रांति। हूल संथाली भाषा का शब्द है, जिसका मतलब होता है विद्रोह।
30 जून, 1855 को संथाल आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के दमन एवं अत्याचार के खिलाफ पहली बार विद्रोह का बिगुल फूंका। इस दिन 400 से अधिक गांवों के 50000 से अधिक लोगों ने साहिबगंज के भोगनाडीह गांव पहुंचकर अंग्रेजों से जंग करने का एलान कर दिया। आदिवासी भाई-बहनों सिद्धो-कान्हो, चांद-भैरव और फूलों-झानो के नेतृत्व में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने और “करो या मरो, अंग्रेज़ो हमारी माटी छोड़ो” ” “अबुवा दिशुम, अबुवा राज” के नारों के साथ अंग्रेज़ो के खिलाफ युद्ध करने का एलान किया। संथाल विद्रोहियों के आक्रामक रवैये से घबराकर अंग्रेज़ो ने उनका दमन प्रारंभ करना शुरू कर दिया। जब अंग्रेज़ो का दमन बढ़ने लगा तो इसकी प्रतिक्रिया में आदिवासियों ने अंग्रेजी सरकार की ओर से आए जमींदारों और सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। तब विद्रोहियों को सबक सिखाने के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं। चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मार डाला।
एक अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि इस महान क्रांति में लगभग 20000 से अधिक आदिवासियों को अंग्रेज़ो ने गोलियों की तड़तड़ाहट से मौत के घाट उतार दिया।
इसके बाद सिद्धो और कान्हो को साहिबगंज के भोगनाडीह में ही पेड़ से लटकाकर 26 जुलाई 1855 को फांसी दे दी गई।
हूल क्रांति एक राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर आधारित आंदोलन थी। आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर अंग्रेजों द्वारा जबरन किए जाने वाले क़ब्ज़े के खिलाफ आंदोलन था। आदिवासी समुदायों के पास सदियों से जीविका के लिए जंगलों का अधिकार था, जो उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा था। लेकिन अंग्रेज़ सरकार ने उनकी ज़मीनों को ज़बरन कब्ज़ा करके उनकी संस्कृति और जीविका को प्रभावित किया। इस प्रशासनिक उत्पीड़न के खिलाफ उनकी आदिवासी अस्मिता के सवाल पर प्रतिक्रिया के रूप में हूल क्रांति की नींव रखी गई थी।
हूल क्रांति एक संगठित रूप में तैयार की गई थी और इसमें अनेक आदिवासी समुदायों का समर्थन मिला था। यह भारत की स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता की लड़ाई के लिए ऐतिहासिक पल था, जब पहली बार भारतीय आदिवासियों ने संगठनबद्ध रूप से अपने अधिकारों की रक्षा करने के लिए अंग्रेज़ो के खिलाफ आंदोलन चलाया। यह आंदोलन न केवल उनके आर्थिक और सामाजिक हक़ों की मांग कर रहा था, बल्कि उनके स्वतंत्रता और अस्मिता के मुद्दे पर भी ध्यान केंद्रित कर रहा था।
संथाल की माटी के हज़ारों हज़ार इन्हीं आदिवासी शहीदों की याद में हर साल 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है।
लेखक: अशोक बड़ाईक, प्रदेश मीडिया सह-प्रभारी, भाजपा झारखंड