हाइटेक हुई शादियां, न पालकी, न कहार …
शम्भू प्रसाद अभय
गोपालगंज:-समय के साथ साथ सब रस्म व रिवाज भी बदलते जा रहे हैं।शादी विवाह व अन्य आयोजनों के पुराने रस्म भी अब विलुप्तता की कगार पर पहुंच गए है। शादियों के हाइटेक होने से कई जातियों के पुश्तैनी व पारंपरिक पेशे भी छीन चुके हैं। ये पेशे सामाजिक समरसता के मुख्य सूत्राधार होते रहे हैं। हमारी सामाजिक बनावट में सभी जातियों की अपनी-अपनी भूमिका रही है।शादी विवाह के अवसरों पर सभी जाति व विरादरी के लोगों की पूछ होती थी,सबका सम्मान किया जाता था,परन्तु अब वह बीते दिनों की बात बन कर रह गयी है।आज की युवा पीढ़ी पुराने रस्मों के नाम को सुनकर आश्चर्य व्यक्त कर रही है कि काश वैसा आज भी होता।
…चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई,
… पालकी होके सवार चली रे, मैं तो अपने साजन के द्वार चली रे… आदि फिल्मी गाने व इसके अर्थ अब इतिहास के पन्नो में सिमट कर रह गए है । अब डोली न तो कहीं दिख रही है या न ही डोली किसी को नसीब हो रहीं है। आज से लगभग दो दशक पूर्व तक ग्रामीण व शहरी इलाकों में डोली व पालकी नजर आती थी लेकिन अब महंगी लग्जरी व अत्याधुनिक कारों ने डोली व पालकी की जगह ले रखी है। अब 12 घंटे में ही शादी-विवाह की सभी रस्में पूर्ण हो जाती है।समय का अभाव व कहारों की कमी के कारण भी डोली पालकी नजर नहीं आता है।पहले के जमाने मे पालकी व डोली में बैठी दुल्हन भी दिख जाती थी ।गांव के बाहर बाहर चंवर में जब संध्या की बेला में कहार जल्दी जल्दी डोली लेकर आगे बढ़ते थे और नदिया के पार फ़िल्म का गाना…जल्दी जल्दी चलू रे कहरा , सूरज डूबे रे नदिया …का धुन जब गाते हुए बढ़ते थे तो आसपास के लोग भी झूम उठते थे।आज के समय में पहले की पालकी व डोली धूल फांक रही । जिनके घर पुराने जमाने की पालकी व डोली है आज वह धूल फांक रही है। लोगों का कहना है डोली व पालकी के प्रयोग में काफी समय चाहिए अब लोगों के पास उतना समय भी नही रहा। आज के समय में दूल्हे राजा के परिवार के सदस्यों को छोड़ दें तो रात में कोई टिकता ही नहीं। सभी लोग भोजन किये व घर के लिए प्रस्थान कर जाते है। ऐसे तो शादियों का हाइटेक होना लाजमी भी है। आधुनिकता के इस दौर में सभी को कम खर्च व समय का बचत चाहिए।
बदलते जमाने का प्रभाव अब फिल्मी गानों पर भी दिखने लगा है।
पहले के जमाने में शादी विवाह के अवसर पर मटकोर की विधि की जाती थी जिसमें गांव की सभी महिलाएं जाती थी। मांगलिक गीत होता था,तासा बजता था,जो आकषर्ण का केंद्र होता था परन्तु अब तासा के जगह भांगड़ा ले चुका है। जिसके कारण तासा अब समाप्त हो गया है। जिनके घर शादी होती थी उनके यहां समूचे मुहल्ले की बुजुर्ग महिलाएं सुबह शाम जा कर सांझा पराती गाती थी,वह अब भी समाप्त होने लगा है।नई जमाने की औरतों को यह सब याद भी नही है अब।पुराने जमाने व परंपराओं को याद करते हुए सियाड़ी कर्ण रामाकांत राम व मीरगंज निवासी चन्देश्वर प्रसाद बताते हैं कि पहले दूर-दराज जाने वाली बारातें भी बैलगाड़ी से ही जाया करती थीं। रास्ते में कलेवा का विधान था। | बैलगाड़ी उस अमराई में रुकती थी, जहाँ कुआ हुआ करता था।वहीं सभी बाराती रुकते थे। जहां दोपहर का नाश्ता व भोजन आदि होता था,तब वहां से सभी बाराती प्रस्थान करते थे।तब दूल्हा व दुल्हन को अपने ससुराल पहुंचने में घंटों लगते थे, अब चंद मिनटों में मिलों की दूरी तय करते हुए दूल्हा दुल्हन अपने ससुराल चले जाते है।पलक झपटे ही दुल्हन अपने पिया के पास होती है।पहले बारात के समय द्वारपूजा का रस्म होता था। अब इसे जयमाला समाप्त कर रहा है,बारात में भोजन के समय पानी पीने के लिए मिट्टी के सोबरना व बरगद के पतों के पतल होतें थे लेकिन प्लास्टिक व फोम नें इसे भी समाप्त कर दिया।इसके कारण कुम्हार के सामने बेरोजगारी की समस्या है।