टाटीसिल्वे में आयोजित श्रीमद् भागवत कथा में उमड़े श्रद्धालु
रांची: पूज्य इंद्रेश जी महाराज के सान्निध्य में टाटीसिलवे के ईईएफ मैदान में चल रही श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ के दूसरे दिन भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं, गिरिराज गोवर्धन महिमा, गौ सेवा, मनुष्य ईर्ष्या, पर्यावरण संरक्षण पर विशेष प्रकाश डाला। भक्तों ने भजन-कीर्तन के माध्यम से ठाकुर जी की महिमा का रसास्वादन किया। कथा में बताया गया कि जिस तरह सूरदास जी ठाकुर जी के दर्शन हृदय से करते थे, हमें भी बाहरी दुनिया से हटकर, हृदय से भगवान को देखना और अनुभव करना चाहिए। कथा के दौरान संत सूरदास जी के दिव्य अनुभवों और उनकी भक्ति का भी उल्लेख किया गया, जिससे श्रद्धालु भाव-विभोर हो गए। पूज्य महाराज जी ने बताया कि महाकवि सूरदास जी जन्म से ही नेत्रहीन थे, लेकिन श्री वल्लभाचार्य की कृपा से उन्हें अलौकिक दृष्टि प्राप्त हुई। उनके नेत्र भले ही नहीं थे, लेकिन वे ठाकुर जी के रूप और लीलाओं का इतना सजीव वर्णन करते थे कि देखने वाले भी चकित रह जाते। कथा में सूरदास जी का यह प्रसिद्ध पद भी सुनाया… “आज हरि देखे नंगम नागा, मोतन माले गले और साजा”… अर्थात महाराज जी ने बताया कि सूरदास जी के भजन केवल संगीत नहीं थे, बल्कि भक्तिभाव से ओत-प्रोत आत्मदर्शन थे। वे अपने हृदय में श्रीकृष्ण को साक्षात देखते और ऐसा भावमय वर्णन करते, जैसा कोई नेत्र वाले भी नहीं कर सकते।
गिरिराज गोवर्धन की महिमा और गौ सेवा
महाराज जी ने गोवर्धन पर्वत के पूजन और गौ सेवा की महत्ता बताते हुए कहा कि श्रीकृष्ण केवल पूजा से प्रसन्न नहीं होते, बल्कि जब हम प्रकृति, गौ माता और जीव-जंतुओं की रक्षा करते हैं, तभी वे सच्चे अर्थों में कृपा करते हैं। उन्होंने भक्तों को गौ-सेवा और वृक्षारोपण का संकल्प दिलाया।
पर्यावरण संरक्षण भारतीय संस्कृति की नींव
महाराज जी ने कहा कि श्रीमद् भागवत केवल एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाने वाला मार्गदर्शक है। इसमें बताया गया है कि प्रकृति की रक्षा करना भी ईश्वर की पूजा के समान है। उन्होंने श्रद्धालुओं को कम से कम एक पेड़ लगाने और गौ सेवा को अपनाने का संकल्प दिलाया।
महाराज इंद्रेश जी महाराज ने भक्तों को संबोधित करते हुए कहा कि जीवन में ईर्ष्या का त्याग अत्यंत आवश्यक है। उन्होंने कहा, “ईर्ष्या की चिकित्सा सबसे पहले करें। जब ईर्ष्या घटेगी, तो जीवन के सभी दुख भी स्वतः कम हो जाएंगे। महाराज जी ने समझाया कि यदि किसी के धन, सौंदर्य या प्रतिष्ठा को देखकर मन में ईर्ष्या उत्पन्न होती है, तो इसका अर्थ है कि व्यक्ति ठाकुर जी से दूर हो रहे हैं। इसलिए मन को शुद्ध रखने के लिए ईर्ष्या का परित्याग करना आवश्यक है।
भक्तों को एक आत्मंथन करने की सलाह दी…
इंद्रेश जी उपाध्याय ने श्रद्धालुओं को एक आत्ममंथन करने की सलाह दी। बोलें- आप स्वयं जानते हैं कि आपको किससे ईर्ष्या होती है। यदि आप रोज़ कथा सुनते हैं, तो एक बार उस व्यक्ति के घर जाएं या उसकी तस्वीर देखें। यदि तब भी मन में ईर्ष्या उत्पन्न होती है, तो समझ लें कि आपको और कथा सुनने की आवश्यकता है। महाराज जी ने यह भी कहा कि जब ईर्ष्या पूरी तरह समाप्त हो जाएगी, तभी यह समझना चाहिए कि कथा सुनना सफल रहा है।
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