प्रभावी पेसा और वनाधिकार के बिना जनजातीय विकास अधूरा

रांची: डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी विश्वविद्यालय के सभागार में शनिवार ko जनजातियों के संवैधानिक एवं कानूनी अधिकार, पेसा एवं वनाधिकार कानून” विषय पर कार्यशाला का आयोजन किया गया। यह वनवासी कल्याण केंद्र, डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी विश्वविद्यालय , आई क्यू ए सी एवं इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया गया। इस कार्यशाला में पूरे झारखण्ड से पाहन, पुजार, मुंडा, मानकी, माझी हड़ाम और पंचायत प्रतिनिधि आए। कार्यशाला में विख्यात जनजातीय बुद्धिजीवियों और राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में काम करने वाले गणमान्य समाजसेवियों ने भाग लिया।
कार्यक्रम का शुभारंभ जगलाल पाहन जी द्वारा जनजाति पारंपरिक पूजा विधि से किया गया.
प्रारंभिक प्रस्तावना में डॉ प्रदीप मुंडा ने कहा कि अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने जनजाति समाज के रूढ़ीगत एवं परंपरागत शासन व्यवस्था को तोड़ने का कार्य किया . भारत के स्वाधीन होने के पश्चात महात्मा गांधी एवं डॉ अंबेडकर ने विचार किया कि गांव में गांव की शासन व्यवस्था के बिना गांव का विकास नहीं हो सकता है.
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालयके कुलपति डॉ तपन कुमार शांडिल्य ने कहा कि आजादी के पहले एवं आजादी के बाद जनजाति समाज को जो कानूनी अधिकार प्राप्त होना चाहिए था वह आज आजादी के अमृत काल में 75 वर्ष के बाद भी नहीं मिला है जनजाति समाज प्रारंभ से हासिए पर रहा है. जनजातीय विकास के जुड़े संवैधानिक प्रावधानों की जानकारी समाज के सबसे अंतिम छोर तक ले जाना ही सशक्तिकरण की पहली कड़ी है। और यदि समाज, सरकार, बुद्धिजीवी, शिक्षण संस्थान मिल कर इसके लिए काम करें तो इससे राज्य का कल्याण होगा।
मध्य प्रदेश शासन के पदाधिकारी, लेखक, एवम जनजाति चिंतक श्री लक्ष्मण राज सिंह मरकाम ने अपने संबोधन में कहा की जनजाति समाज प्रारंभ से शक्तिशाली रहा है मध्य भारत के गोंडवाना राज्य का 14 साल का गौरवशाली इतिहास है जनजाति समाज को कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं है वह स्वयं में परिपूर्ण है सरकार द्वारा औद्योगिकरण और विकास के नाम पर जो उनसे छीना गया है उनसे जो लिया गया है वहीं वापस करने की आवश्यकता है. वन अधिकार कानून एवं पेसा कानून भी यही कहता है.
जल जंगल जमीन ही जनजातियों की पहचान है। उसके बिना जनजाति समाज बिखर जाएगा। और इसकी रक्षा और संवर्धन के लिए परम्परा आधारित पेसा का क्रियान्वयन नितांत आवश्यक है। भारत की मौलिक परंपरा जो कि जनजातीय परम्परा है उसका जीवंत रहना और सुदृढ़ होना आवश्यक है.
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री हर्ष चौहान ने पेसा और वनाधिकार को आदिवासी अस्तित्व एवं अस्मिता का पोषक बताया। उन्होंने बताया कि समाज के विकास और परंपरा के संरक्षण में आदिवासी समाज की बड़ी भूमिका है। और समाज की अपेक्षा और आवश्यकता का संविधान के आलोक पूरा किया जाना सभी के हित में हैं।
पूर्व सांसद पद्म भूषण कड़िया मुंडा ने अपनी संबोधन में कहा कि हमारे जनजाति समाज में कोई धर्म गुरु नहीं होता. लेकिन जो खुद ईसाई है वह आदिवासियों का सरना धर्म गुरु बन बैठा है. जिसका कुछ पढ़े लिखे लोग समर्थन भी कर रहे हैं सरना पूजा स्थल, गिरजा या मंदिर के नाम पर कोई धर्म कोड मिल सकता है क्या? सरना धर्म कोड का मांग करने वाले लोग लोगों को भ्रमित कर रहे हैं ऐसे विषय 2024 में स्वत: ही खत्म हो जाएंगे. उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि अब जनजाति समाज को अपने आस पास सभी षड्यंत्रों और चुनौतियों को समझना चाहिए। पेसा और वनाधिकार कानून हमारी संस्कृति को मजबूत करने के साधन हैं। हमें स्वाभिमान के साथ संविधान के प्रावधानों का सदुपयोग कर आगे बढ़ना है।
पद्म श्री जमुना टुडू ने इस बात पर जोर दिया कि आदिवासी महिलाएं आगे आएं, स्थापित नियमों और कानूनों को समझे और सभी के हित उसका क्रियान्वयन कराएं। उन्होंने कहा कि महिलाएं वन संरक्षण में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।
विकास भारती के सचिव पद्म श्री अशोक भगत ने कहा कि भारत सदैव परम्परा आधारित विकास का समर्थक रहा है। उन्होंने अविलम्ब पेसा और वनाधिकार को युद्ध स्तर पर क्रियान्वयन करने की आवश्यकता बतायी।
संगोष्ठी को डॉ राजकिशोर हांसदा, पिंकी खोया, गिरीश कुबेर और सिद्धनाथ सिंह जी ने भी संबोधित वक्ताओं ने इस बात पर बल दिया की अनुसूचित जनजाति समाज के लिए संविधान निर्माताओं और नीति नियंताओं द्वारा ऐसे प्रावधान स्थापित किये हैं जो समाज के अस्तित्व और अस्मिता की निरंतरता के लिए आवश्यक हैं। बदलते सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में इन प्रावधानों की समझ और अनुपालन और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
1996 में बना यह कानून, आज भी देश के अधिकतर राज्यों में पूरी तरह से लागू नहीं है। कुछ राज्यों में नियम बनने के बावजूद अनुसूचित क्षेत्र में रूढी परंपरा के अनुसार गांवों को चिन्हित नहीं किया है। परंपरागत ग्राम सभा को लघु वनोपज, जल निकाय, लघु खनिज ऐसे संसाधनों पर परंपरागत अधिकार देने हेतु राज्य सरकारों के नियमों में जो उचित बदलाव की आवश्यकता है, उन्हे करना चाहिए.
इसी तरह “वन अधिकार कानून” 2006 में पारित हुआ। इसकी प्रस्तावना में लिखा है कि ब्रिटिश काल और आजादी के बाद भी जनजाति समाज अपने वनों के अधिकारों से वंचित रहा। इस ऐतिहासिक अन्याय को यह कानून दूर कर रहा है। किंतु इस कानून के अंतर्गत दिए हुए “सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार” का क्रियान्वयन देश में पांच प्रतिशत भी नहीं हो पाया है।

इस कार्यक्रम में प्रमुख रूप से राज्यसभा सांसद महेश पोद्दार, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव, पूर्व विधायक शंकर उरांव, डॉ सुखी उरांव, मेघा उरांव, संदीप उरांव, सोमा उरांव लाला उरांव, कैलाश उरांव, सुशील मरांडी सुलेमान शंकर मुर्मू लोकेंद्र टुडू, रमेश बाबू, बिंदेश्वर साहू, देवाशीष मिश्र, ओम प्रकाश अग्रवाल, रिझू कच्छप और बड़ी संख्या में जनजाति समाज के प्रतिभागी उपस्थित हुए।

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