आदिवासी समाज को संविधान प्रदत्त अधिकारों में भाजपा लगातार कर रही कटौती : राजीवरंजन प्रसाद

रांची : वन अधिकार कानून ने आदिवासियों को उनका हक दिया, ग्रामसभा व आदिवासी स्वराज की आवाज को महत्व दिया था, वन संरक्षण कानून के नए नियम आदिवासी स्वराज-ग्रामसभा के अधिकारों पर हमला हैं l
पीएम मोदी एवं भाजपा की कथनी में  आदिवासी हित का दावा व दिखावा है, लेकिन करनी में आदिवासियों के साथ छलावा है उक्त बातें प्रतिक्रिया स्वरूप झारखण्ड प्रदेश कॉंग्रेस कमिटी के प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद ने प्रेस बयान जारी कर कही l
राजीव रंजन प्रसाद ने कहा कि एक तरफ भाजपा आदिवासियो को केंद विंदु में रख कर विश्वास रैली का आयोजन करती है दूसरी तरफ आदिवासी समाज को संविधान प्रदत्त अधिकारों में लगातार कटौती कर रही है, वन संरक्षण अधिनियम 1980 को, वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अनुरूप लागू करना सुनिश्चित करने के संसद द्वारा सौंपे गए उत्तरदायित्व को मोदी सरकार ने तिलांजलि दे दी है। इन नए नियमों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय तथा पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय संबंधी संसद की स्थायी समितियों सहित अन्य संबद्ध हितधारकों से बिना कोई विचार विमर्श और चर्चा किए प्रख्यापित कर दिया गया है।
राजीव रंजन प्रसाद ने कहा कि अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, जिसे जन सामान्य की भाषा में वन अधिकार अधिनियम, 2006 के रूप में जाना जाता  है, एक ऐतिहासिक और सर्वाधिक प्रगतिशील कानून है जिसे गहन संवाद और चर्चा के बाद संसद द्वारा सर्वसम्मति और उत्साहपूर्वक पारित किया गया था। यह देश के वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी, दलित और अन्य परिवारों को व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों स्तर पर भूमि और आजीविका के अधिकार प्रदान करता है।

उन्होंने कहा कि अगस्त 2009 में, इस कानून के अक्षरशः अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए, तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्रालय ने एक परिपत्र जारी किया, जिसमें कहा गया था कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत वन भूमि के अन्यत्र उपयोग के लिए किसी भी मंजूरी पर तब तक विचार नहीं किया जाएगा जब तक वन अधिकार अधिनियम 2006 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का सर्वप्रथम निपटान नहीं कर लिया जाता है। पारंपरिक रूप से वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी और अन्य समुदायों के हितों के संरक्षण और संवर्धन के लिए यह प्रावधान किया गया था। इस परिपत्र के अनुसार, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वन और पर्यावरण मंजूरी पर कोई भी निर्णय लेने से पहले आदिवासी और अन्य समुदायों के अधिकारों का निपटान करना जरुरी होगा। परिपत्र में कहा गया है कि इस तरह के किसी भी प्रयोजन को कानून संवत होने के लिए प्रभावित परिवारों की स्वतंत्र, पूर्व और सुविज्ञ सहमति प्राप्त करना बाध्यकारी होगा।

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा कि हाल ही में मोदी सरकार द्वारा जारी नियमों के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा अंतिम रुप से वन मंजूरी मिलने के बाद वन अधिकारों के निपटारे की अनुमति दे दी है। जाहिर तौर पर यह प्रावधान कुछ चुनिंदा लोगों के लिए ‘व्यापार को आसान बनाना’ के नाम पर किया गया है। परंतु यह निर्णय उस विशाल जन समुदाय के लिए ‘जीवन की सुगमता’ को समाप्त कर देगा, जो आजीविका के लिए वन भूमि पर निर्भर है। यह वन अधिकार अधिनियम, 2006 के मूल उद्देश्य और वन भूमि के अन्यत्र उपयोग के प्रस्तावों पर विचार करते समय इसके सार्थक उपयोग के उद्देश्य को नष्ट कर देता है। एक बार वन मंजूरी मिलने के बाद, बाकी सब कुछ एक औपचारिकता मात्र बनकर रह जाएगा, और लगभग अपरिहार्य रूप से किसी भी दावे को स्वीकार नहीं किया जाएगा और उसका निपटान नहीं किया जाएगा। वन भूमि के अन्यत्र उपयोग की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए राज्य सरकारों पर केंद्र की ओर से और भी अधिक दबाव होगा।

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