इस मंदिर के महालक्ष्मी मनाने को भगवान विष्णु भेजते हैं शॉल
माता आदिशक्ति के 51 पीठों की तरह ही कोल्हापुर में 27 हजार वर्गफुट में फैला माता महालक्ष्मी का शक्तिपीठ विश्व प्रसिद्ध है। 2000 साल पुराने इस मंदिर को सबसे प्राचीन माना जाता है। कहा जाता है कि यहां पर जो भी भक्त माता के दर्शन कर अपने विचारों को माता के सामने मन ही मन प्रस्तुत करता है माता आदि शक्ति उसका कल्याण अवश्य करती है और माता के आशीर्वाद से उस व्यक्ति के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा प्रत्येक इच्छा पूर्ण होती है।
माता महालक्ष्मी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी तथा कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर की अधिष्ठात्री देवी है। लोगों का मानना यह है कि इस मंदिर में माता महालक्ष्मी के साथ-साथ भगवान विष्णु का भी वास है।
भगवान विष्णु से रूठ कर आईं थी देवी
मान्यता है कि देवी महालक्ष्मी तिरुपति में वेंकटाद्रि पर्वत पर विराजित अपने पति भगवान वेंकटेश्वर अर्थात भगवान विष्णु से किसी कारणवश रूठकर कोल्हापुर आ गईं। इसके बाद से हर साल भगवान वेंकटेश्वर माता लक्ष्मी को मनाने के लिए तिरुपति से एक विशेष शॉल उपहार स्वरूप भेजते हैं, जिसे माता लक्ष्मी दीपावली के दिन धारण करती हैं।
वर्ष में 2 बार सूर्यदेव किरणों से करते हैं अभिषेक
कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है वह समय, जब सूर्य की किरणें मंदिर के गर्भगृह तक पहुँचती हैं। वर्ष में दो बार ही ऐसा समय आता है जब सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें देवी महालक्ष्मी की प्रतिमा को स्पर्श करती हैं। पहले दिन सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें महालक्ष्मी के चरणों पर पहुँचती हैं। दूसरे दिन मध्य भाग में और तीसरे दिन माता लक्ष्मी के मस्तक को सूर्य की पहली किरण स्पर्श करती है। उस दिन पूरा गर्भगृह असंख्य रोशनियों से प्रकाशित हो जाता है। यह मंदिर की वास्तुकला है या कोई चमत्कार, यह शायद कोई नहीं जानता।
अरबों का खजाना
इतिहासकारों के मुताबिक, कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर में कोंकण के राजाओं, चालुक्य राजाओं, शिवाजी और उनकी मां जीजाबाई तक ने चढ़ावा चढ़ाया है। कुछ साल पहले जब इस मंदिर के खजाने को खोला गया तो यहां सोने, चांदी और हीरों के ऐसे आभूषण सामने आए जिसकी बाजार में कीमत अरबों रुपए में हैं। इस खजाने में सोने की बड़ी गदा, सोने के सिक्कों का हार, सोने की जंजीर, चांदी की तलवार, महालक्ष्मी का स्वर्ण मुकुट, श्रीयंत्र हार, सोने की चिड़िया, सोने के घुंघरू और हीरों की कई मालाएं आदि मिले थे।
मंदिर का इतिहास
मंदिर के बाहर लगे शिलालेख से पता चलता है कि यह 2000 साल पुराना है। शालिवाहन घराने के राजा कर्णदेव ने इसका निर्माण करवाया था, जिसके बाद धीरे-धीरे मंदिर के अहाते में 30-35 मंदिर और निर्मित किए गए। आदि शंकराचार्य ने महालक्ष्मी की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की थी।
काले पत्थरों पर अद्भुत नक्काशी
यहां काले पत्थरों पर कमाल की नक्काशी हजारों साल पुराने भारतीय स्थापत्य कला की अद्भुत मिसाल है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में दो फीट नौ इंच ऊंची महालक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित हैं। उनके दाएं-बाएं दो अलग गर्भगृहों में महाकाली और महासरस्वती के विग्रह हैं। मूर्ति में महालक्ष्मी की 4 भुजाएं हैं। इनमें महालक्ष्मी मेतलवार, गदा, ढाल आदि शस्त्र हैं। मस्तक पर शिवलिंग, नाग और पीछे शेर है। दिवाली की रात 2 बजे मंदिर के शिखर पर दीया रोशन होता है, जो अगली पूर्णिमा तक जलता रहता है।
घर्षण की वजह से नुकसान न हो इसलिए चार साल पहले औरंगाबाद के पुरातत्व विभाग ने मूर्ति पर रासायनिक प्रक्रिया की है। इससे पहले 1955 में भी यह रासायनिक लेप लगाया गया था। महालक्ष्मी की पालकी सोने की है। इसमें 26 किलो सोना लगा है।