नवरात्र के 9 दिनों में हम संवेदनशील होने का ताप और साधना करते हैं
राष्ट्रीय सनातन एकता मंच एवं विश्व हिंदू परिषद सेवा विभाग के प्रांतीय प्रवक्ता संजय सर्राफ ने कहा है कि चेतना तथा भावना का संयुक्त स्वरूप को संवेदना कहा जाता है।जीवंत एवं जागरूक, ग्रहण करने की क्षमता और अनुभूति का मिश्रण यदि व्यक्तित्व में समावेश हो तो वह व्यक्ति चैतन्य के श्रेणी में आता है वैसे तो प्राणी मात्र को सृष्टिकर्ता ने भावनाएं प्रदान की है। जैसे कोई भी मादा जानवर अपने शिशु के लिए भावुक होती है और नर जानवर सुरक्षा देने का कार्य करता है। उनका यह कार्य ईश्वर प्रदत्त भावनाओं के वशीभूत ही होता है। परंतु मनुष्य में अकूत भावनाएं ईश्वर ने प्रदान की है। नकारात्मक भाव और सकारात्मक भाव से हम या तो सकारात्मक कार्य करते हैं या फिर नकारात्मक कार्य करते हैं। जब भावनाएं सकारात्मक हो और उदारता की श्रेष्ठ भावना अंतस में कार्यरत हो तो व्यक्ति भावना से समृद्ध रहता है। चेतना और श्रेष्ठ समृद्ध भावना मिलकर मनुष्य को संवेदनशील बनाता है। संवेदना का अर्थ इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी के दुख में दुखी हो जाना और किसी के सुख में खुश हो जाना। दूसरे के अनुभूति का ध्यान रखने वाला व्यक्ति संवेदनशील व्यक्ति कहलाता है। जब हम अध्यात्मिक दृष्टि से अपने-अपने आराध्य से प्रार्थना, याचना और आराधना करते हैं तो वास्तव में उनकी संवेदना का आकांक्षी होते हैं। क्योंकि पराशक्ति अति संवेदनशील होती है और अपने उपासक की अनुभूति को अनुभव करती है। और उनकी संवेदना वरदान एवं आशीर्वाद के रूप में प्राप्त होता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता और उसके स्थायीत्व का अनुपात हमारी संवेदना के समानुपात है। नवरात्रि के 9 दिनों में हम संवेदनशील होने का तप और साधना करते हैं और उसका प्रतिफल हमें आशीर्वाद के रूप में प्राप्त होता है।