अख़बार मालिकों, पत्रकारों और मैनेजमेंट के लिए ख़तरे की घंटी

भारत सरकार ने एक सोची समझी रणनीति के तहत एक नई पालिसी को तैयार किया है। लोकसभा चुनाव से पहले इस पालिसी को इसलिए लागू नहीं किया गया क्योंकि सरकार को इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ सकते थे। अगर ये पालिसी चुनाव से पहले लागू की जाती तो ज़मीन पर काम करने वाले अख़बार मलिक सरकार को उसकी ज़मीन दिखा देते। हो सकता है कि सत्ता परिवर्तन भी हो जाता।
इस पालिसी के लागू होने के बाद देश में सिर्फ़ 2 प्रतिशत अख़बार ही जीवित रहेंगे। छोटे अख़बार जिनकी प्रसार संख्या 25000 से कम होगी उन्हें कोई विज्ञापन नहीं मिलेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि 98 प्रतिशत अख़बार इसी केटेगरी में आ जाएँगे। सरकार एक रणनीति के तहत पहले मझोले अख़बारों को मारेगी। फिर नीचे वालों को। छोटे अख़बारों की हैसियत से सरकार बखूबी वाक़िफ़ है। वह जानती है कि ये कभी एक नहीं हो सकते। रही बार मीडिया ऑर्गेनाइज़ेशनों की तो वह पहले से ही निष्क्रिय है। सब अपनी अपनी राजनीति चमकाने में व्यस्त है।

भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित इस पालिसी में एक से एक नये नये बिंदु डाले गये हैं कि कहीं से भी कोई निकल ना पाए। मिसाल के तौर पर सर्कुलेशन वेरिफिकेशन के लिये

  • अपनी स्वयं की प्रेस होने के अलावा अब कोई विकल्प नहीं रहेगा।
  • ⁠प्लेस ऑफ़ पब्लिकेशन अगर एक वर्ष के बीच में बदला गया है तो आप अपने अख़बार की वेरिफिकेशन नहीं करा सकते ।
  • ⁠अख़बार वितरण से होने वाली आय 24- 48 घंटों के भीतर बैंक खाते में जाम की जानी चाहिए ।
  • ⁠अब से सिर्फ़ डेस्क ऑडिट होगा। अब से आप अख़बार छापो या मत छापो। सिर्फ़ काग़ज़ पूरे करके डिपार्टमेंट में जमा कर दो। फिजिकल वेरफ़िकेशन नहीं की जाएगी।
  • ⁠मशीन रूम रिटर्न का प्रारूप प्रस्तावित आरऐनआई के हिसाब से ही होना चाहिए। मिनट तो मिनट रिपोर्ट करना होगा। कब प्लेट लगाई, कब मशीन का बटन दबाया, कब पेपर फटा, कितनी स्पीड पर मशीन चली, मशीन पर 8 घंटे में कितने अख़बार छपते हैं। मशीन का मेक और मॉडल कौन सा है। रील का वज़न कितना है, उसमें से पेपर कितना निकला, गत्ता कितना निकला, वेस्टेज कितनी हुई। हर चीज़ का वजन आरऐनआई द्वारा प्रस्तावित प्रारूप में भरना होगा।
  • प्रिंटिंग प्रेस में काग़ज़ का स्टॉक कितना है। उसे रील टू रील, प्रति ग्राम के हिसाब से लिखना होगा। कुल मिलाकर 4 कर्मचारी प्रेस वाला इसी में लगाएगा की वह हर डिटेल भरे। हर चीज़ का वजन करे। उसे MRR – Machine Room Return में अंकित करे।
  • ⁠अगर आपकी स्वयं प्रेस नहीं है तो मान के चलिए आप इस प्रक्रिया को पूरा करना तो दूर, इस प्रक्रिया से गुज़र भी नहीं पायेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रिंटिंग प्रेस वाले के पास आरऐनआई द्वारा एक पत्र भेजा जाएगा। जिसमें छपाई से जुड़ा प्रारूप होगा। इसमें छपाई के जीएसटी बिल, प्रिंटिंग शेड्यूल, मशीन की क्षमता, प्रेस का मासिक बिजली बिल अथवा जनरेटर और डीजल बिल, प्रेस पर छपने वाले सभी अख़बारों के नाम, उनकी प्रसार संख्या, काग़ज़ पार्टी द्वारा उपलब्ध करवाया गया है या प्रेस द्वारा, काग़ज़ के बिल, पूरे महीने में इस्तेमाल की जाने वाली इंक (शाई) की कुल खपत के अलावा कई और पैरामीटर शामिल किए गए हैं। और ये सारी जानकारी एक प्रेस वाले को बाक़ायदा एफिडेविट पर देनी होगी। अब आप स्वयं हो सोच लीजिए कि कितने प्रिंटर इसके लिए राज़ी होंगे।
  • ⁠इसके अलावा आपको ये भी जानकारी देनी होगी कि अख़बार में कुल लागत जैसे काग़ज़, प्लेट, इंक, बिजली बिल, स्टाफ सैलरी, डिस्ट्रीब्यूशन कॉस्ट, अन्य ख़र्चों के बाद आपका अख़बार फ़ायदे में है या नहीं। अख़बार बेचने के लिए आपने गिफ्ट दिया तो कितने का दिया। एक रेश्यो निकाला जायेगा जिससे ये पता चलेगा कि आपका अख़बार फ़ायदे में है या नहीं। अगर फ़ायदे में नहीं है तो आप अख़बार चला कैसे रहे हैं।
  • ⁠ये तो भारत सरकार की प्रस्तावित पालिसी के कुछ अंश भर है। एक बार आप स्वयं बढ़ लें।
    हम सभी लोग समाचार पत्रों के व्यवसाय से लगभग 30-40 सालों से जुड़े हुए हैं। यक़ीन मानिए की अगर ये पालिसी लागू हो गई तो देश में सिर्फ़ 2 प्रतिशत ही अख़बार बचेंगे। वह भी सिर्फ़ हिंदुस्तान टाइम्स या टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे। ये पूरी इंडस्ट्री ख़त्म हो जाएगी। कुछ लोग अगर ये सोच रहे हैं कि हम तो अपने अख़बार स्मॉल केटेगरी में रख लेंगे। तो आप ये मत भूलिए कि पालिसी कभी किसी एक व्यक्ति या संस्था विशेष के लिए नहीं बनती। ये एक सोची समझी रणनीति के तहत लोकतंत्र को ख़त्म करने की ओर बढ़ाया गया एक और कदम है। एक पुरानी कहावत है कि बकरा कब तक खैर मनाएगा।

इसके अलावा ग़ौर करने योग्य पहलू :-

  • कौन सा प्रिंटर आपका अख़बार छापने को तैयार होगा?
  • न्यूज़पेपर इंडस्ट्री से लाखों लोग रातों- रात सड़क पर आ जाएँगे।
  • ⁠पीआईबी- डीआईपी कार्ड सहित पत्रकारों को मिलने वाली सभी सुविधाएँ समाप्त हो जायेंगी।
  • ⁠देश भर के प्रेस क्लब सहित पत्रकारों के हितों के लिए बनी संस्थाएँ, एडिटर्स एसोसिएशन इत्यादि अपने आप ही समाप्त हो जायेगी।
  • ⁠अभी आरऐनआई की एनुअल रिटर्न ही नहीं भरी जा पा रही। इसके लिए हर पब्लिशर धक्के खा रहा है। इसके साथ ही सरकार एक और कुठाराघात करने की तैयारी कर चुकी है। सिर्फ़ ऊपर के आकाओ से निर्देश मिलने का इंतज़ार है।
  • सरकार अख़बार के काग़ज़ की खपत के बिल माँगे, इंक के बिल माँगे। ये सब समझ में आता है लेकिन इतनी सारी फ़ॉर्मैलिटीज लगाना, असल में अख़बार वालों का मनोबल तोड़ने का उद्देश्य है। ज़्यादातर अख़बार वाले इतनी सारी काग़ज़ी कार्यवाही से ही डरकर हथियार डाल देंगे। यही सरकार चाहती है।

बहरहाल, अगर इस पालिसी को लागू होने से नहीं रोका गया तो अख़बारों को इतिहास का हिस्सा बनते देर नहीं लगेगी।

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